पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२७४

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शिखरध्वजस्त्रीप्राप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११५५) हेयोपादेयते रहित हौं, इसकार सुखी विचरता हौं, अरु जो कछु जानने योग्य था, सो मैं जाना है, अब दुःख मेरेविष कोङ नहीं, सर्व ठोर मैं तृप्त हौं, अनीति प्राप्तरूप हौं, अरू आत्मा हौं, निर्मल हौं अरु अपने स्वभावविषे स्थित हौं, अरु सर्वोत्मा हौं, निर्विकल्प हौं मेरे वि ऊरण्या कोऊ नहीं, मैं शतरूप हौं, अरु चिरपर्यंत सुखी हौं ॥ वसिष्ठ उवाच हे रामजी । इस प्रकार राजा अरु कुंभका तीन मुहूर्त संवाद हुआ, तिसते उपरांत दोनों उठ खड़े हुये, अरु चले निकट एक तालाब था, जहाँ बहुत कमलिनी थीं, तहाँ आयकर दोनों स्नान करत भये, अरु गायत्री संध्या करी, पूजा कारकै बहुवारि वहाँते चले, वनकुंजविषे आये तब कुंभने कहा, चलिये राजाने कहा, भली बात है, चलिये. तब चले, बहुत नगर देश ग्राम अरु तीर्थ देखे, अरु नानाप्रकारके वनविषे विचरे जो फूल फल संयुक्त थे, तिनविषे विचरे अरु मरुस्थलविषे विचरे ॥ हे। रामजी ! ऐसे राजसी सात्विको तामसी स्थानोंविषे विचरे, तीर्थादिक सात्विकी स्थान हैं, अझ सुंदर वन आदिक राजसी स्थान हैं, अरु मरुस्थल आदिक तामसी स्थान हैं, तिनविषे विचरे, तोभी हर्षशोकको न प्राप्त भये, समताविषे रहे ॥ हे रामजी । कुंभका प्रयोजन फिरणेका यह था कि राजा शुभ अशुभ स्थानोंको देखिकर हर्ष शोक करैगा, अथवा न करेगा, तो भी राजा हर्षशोकको न प्राप्त भया, वहुरे बड़े पर्वतकी कंदरा देखीं, अरु वन कुंज बड़े कष्टके स्थान देखे, अरु एक वनविषे जाय स्थित भए, केतेक कालविषे राजा अरु कुंभ एक जैसे हो गये, इकडेही स्नान करें, अरु एक जैसी मूर्तियां, अरु एक जैसे जाप जपैं, एक जैसी पूजा करें, अरु एक जैसे दोनों शुद्ध भए, जो उपकारकी अपेक्षाविना उपकारी भये, किसी ठौर माटी शरीरको लगावैं किसी ठौर चंदनका लेप करें, किसी ठौर शरीरको भस्म लगावें, किसी और दिव्य वस्त्र पहिरें किसी ठौर केलेके पत्र पर सोवें, किसीठौर फूलकी शय्यापर सोचें, किसी और कूर स्थानोंविष शयन करें ॥ हे रामजी। ऐसे शुभ अशुभ ठौरविषे भी दोनों ज्योंके त्यों रहैं, जो हपशोकको न प्राप्त भए, केवल सत्त्वशुद्धविषे स्थित हैं, आत्माविना अपर कछु न कुरा, एक वनविषेष जाय स्थित भये,