पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२७६

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शिखरध्वजस्त्रीप्राप्तिवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (११५७ ) हैं सो कहता हौं, जो मित्र पूछे तौ सत् कहना चाहिये, अरु दुःख भी नष्ट होता है, जैसे मेघ जड अरु श्याम भी होता है, अरु उसका सज्जन जो हैं, क्षेत्र अरु पृथ्वी, तिल ऊपर वर्षा करता है, तिसकी जड़ता अरु श्यामता नष्ट होतीहै, ताते मैं तेरे ताई कहता हौं, हे राजन् ! जब स्वर्गविषे सभा स्थित थी, तब मैं नारदके पास था, जब सभा उठी, तब नारदमुनि भी उठा, अरु थुझको कहा, जहाँ तेरी इच्छा होवै तहां जाहु, अझ मैं भी जाता हौं, काहेते कि, नारद एव्ही ठौरविसे नहीं ठहरता, विश्वविपे सैर करता फिरता है, इसीते मेरे ताई कहा कि, तू भी जाहु, तब मैं आकाशते चला, एक और सूर्यसाथ मिलाप हुआ, बार आगेको चला, सेवके मार्ग तीक्ष्ण वेगकरि चला आया हौं, जैसे नदी पर्वतते तीक्ष्ण वेगकरि आती हैं, तैसे मैं तीक्ष्ण केगकरि चला आता था, तब दुर्वासा ऋषीश्वर उड़ता आता है, सहामेघकी नई श्याम वस्त्र पहिरे हुए, अरुभूपणसंयुक्त जैसे बिजलीका चमत्कार होता है, वैसे भूषणोंका चमत्कार देकर मैं दंडक्ट्स कारकै कहा ॥ हे मुनीश्वर ! तुम क्या रूप धारा है, जो स्वीकी नई भासता है, तब दुर्वासाने मेरे ताई कहा ॥ हे ब्रह्मपौत्र ! तू कैसा वचन कहता है, ऐसा वचन मुनीश्वर प्रति कहना उचित नहीं, हम क्षेत्र हैं, जैसा बीज क्षेत्रवि बोइये तैसा उगता है, ताते मेरे तांई स्त्री ने ऋहा है, तू भी स्त्री होवैगा, अझ रात्रिको तेरे अंग सब स्त्रीके होवेंगे ।। हे मुनीश्वर ! जो छल्याणकृत ज्ञानवान् पुरुष हैं, तिलो नम्रता होती है, जैसे फलसंयुक्त वृक्ष नन्न होता है, तैसे ज्ञानी भी नग्न होता है, ऐसा वचन तेरे ताई कहना न चाहिये । हे राजन् ! ऐसे श्रवण कारकै मैं तेरे पास चला आया हौं, अरु मेरे ताई लज्जा आती हैं, कि स्वीका शरीर धारे देवतविष कैसे विचौंगा, यही सुझको शोक है, तब राजाने कहा, क्या हुआ, जो दुर्वासाने कहा, अरु स्त्रीका शरीर भया, तुम तो शरीर नहीं, आत्मा निर्लेप, किसीसाथ लेप नहीं । हे मुनीश्वर ! तुम अपनी समताविड़े स्थित रहते हौ, अरु ज्ञानवान् । घुरूपको हेयोपादेश किसीका नहीं रहता, अपनी समताविप स्थित रहता है, तब कुंभन्ने कहा ॥ हे राजन् ! तू सत्य कहता हैं, मेरे ताई। म