पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२८०

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मायाशकागमनवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (११६१ ) भी संकल्प किया, कि संपूर्ण ज्ञाननिष्ठा तेरे तांई दीनी, जब रात्रि एक प्रहर रही तब राजा अकराणीने फूलोंकी शय्या बिछाई, शयन कारकै आपसविपे चर्चाही करते रहे, अरु मैथुन कछु न किया, जब प्रातःकाल : हुआ, तब स्वीका शरीर त्यागिकार कुम्भका शरीर धारा, अरू स्नान किया, संध्यादिक में किये ।। हे रामजी । इसीप्रकार एक मासपर्यंत मंदाचलपर्वतविपे रहे जो रात्रिको स्वीका शरीर अरु दिनको कुरूक्षका शरीर करें जब तीसरा दिन होवै, तब राजाको शयन करायके राज्यकी शुद्ध आय लेनै, बहुरि राजाके पास जाय शयन करे ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणकरणे विवाहलीलावर्णनं नाम शीतितमः सर्गः ॥८॥ चतुरशीतितमः सर्गः ८४. = मायाशझागवनवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जई वहाँसों चले, अस्ताचल पर्वतविषे रहे, उदयाचल अरु सुमेरु कैलास पर्वत इत्यादिक जो पूर्वतअरु केंद्रा वनविषे रहे हैं एक मास, कहूँ इश मास, कहूं पांच दिन, कहूं सप्तदिन रहे, जब एक वनविषे आये, तब राणीने विचार किया कि एते स्थान राजाको दिखाये हैं, तो भी इसका चित किसीविषे बंधमाल नहीं भया ताते अब अपरपरीक्षा लेउँ ऐसे विचारबार अपनी माया पसारी तब इंद्र तेंतीस कोटिदेवतासंयुक्त किन्नर गंधर्व सिद्ध अरु अप्सरा आगे नृत्य करती आये हैं अपर भी जो कछु इंझुकी सामग्री है, तिससंयुक्त इंको देखकर राजा उठा, व्हुत नीतिसंयुक्त इंकी पूजा करी, अरु कहा, हे त्रैलोक्यपति ! तुम्हारा आना इस वनविषे कैसे हुआ है, सो कहौ तब इंने कहा । हे राजन् ! जैसे पक्षी होता है, अरू ऊध्र्वको उड़ता हैं, तिसकी Vठी तागा होता है, तिसरे उडता हुआ भी नीचे आता है, वैसे हम ऊध्र्वके वासी तेरा शुरूपी । तागा है, तप अरु शुभ लक्षण, तिसो श्रवण कृरिकै हम स्वर्ग बैंचे चले आये हैं, इसवनविष