पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(११६२ ) योगवासिष्ठ । इसप्रकार हमारा आना हुआ है, ताते हे राजन् ! तू स्वर्गको चल, अरु स्वर्गविषे स्थित होकार दिव्य भोगको भोगहु, ऐरावत हस्ती हैं, तिसपर आरूढ होडु, अथवा यह उच्चैःश्रवा घोड़ा है, जो क्षीरसमुद्रके मथनते निकसा है, इसपर आरूढ होकार चल अरु सिद्धि भी हैं, एक तौ यह सिद्धि है, जिसपर पाउँ राखिये तो जहां चाहिये तहां पहुँचावै अरु एक खद्ध सिद्धि है, खङ्ग हाथमें धारिकार जहां इच्छा हो तह चला जावै, एक गुटिका है, जो शुखमें राखिकर जहां इच्छा हो तहां इच्छाचारी चला जाइये, इसते लेकर अष्टसिद्धि भी विद्यमान हैं, जो इच्छा होय सो लेहु, अरु स्वर्गविषे चलौ ॥ हे राजन् ! तुम तत्त्ववेत्ता हौ, तुमको ग्रहण त्याग करना कछु नहीं रहा, परंतु जो अनिच्छित आनि प्राप्त होवै,तिसक्का त्याग करना योग्य नहीं, ताते स्वर्गविषे चलो। राजोवाच ।। हे देवराज ! जाना तहाँ होता है; जहां आगे नहीं होता,अरु जहां आगे होवै, तहाँ कैसे जाइये ॥हे देवराज ! हमको सर्व स्वर्गहीदृष्टि आता है, जो वहाँ स्वर्ग होवै यहां न होवै तौ जाइए भी, परंतु जहां हम बैठे हैं, तहाँही स्वर्ग भासता है, ताते हम कहां जावें, हमको तीनों लोक स्वर्ग, दृष्ट आते हैं, अरु सदा स्वर्गरूप जो आत्मा है, हम तिसी विषे स्थित हैं हमारे तांई सर्वथा स्वर्गे भासता है, हम सदा तृप्त आनंद रूप हैं, ताते हम कहाँ जावें ॥ ॥ इंद्र उवाच ॥ हे राजन् ! जो विदित वेद पूर्ण बोध है, सो भी यथाप्राप्त भोगको सेवते हैं, तुम क्यों नहीं सेवते, ऐसे जब इंद्रने कहा तब राजा त्योंही कहिकार चुपकरगया ॥ बहुरि इंद्रने कहा, भला जो तुम नहीं आते तो हम जाते हैं, तेरा अरु कुम्भका कल्याण होवै ॥ हे रामजी ! ऐसे कहि कार इंद्र उठ खड़ा हुआ अरु चला जवलग दृष्टि आता था, तबलग देवता भी साथ हष्टि आते थे, बार दृष्टि अगोचर भए, तब अंतर्धान हो गए. जैसे समुद्रते तरंग उठिकरि बार लीन हो जाता है, अरु नहीं जानाजाता कि, कहां गया तैसे इंद्र अन्तर्धान होगया सो इन्द्र कुंभरूप चुडालाके संकल्पते उठा था, जब संकल्प लीन या तब अंतर्धान हो गया, तब चुडालाने