पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२८२

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मायापिंजरवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६.. (११६३) देखा कि, ऐसे ऐश्वर्य अरु सिद्धि अरु अप्सराके प्राप्त भये भी राजाका चित्त समताविषे रहा, अरु किसी पदार्थविषे बंधमान न हुआ । - इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मायाशक्रागमनुवर्णनं नाम चतुरशीतितमः सर्गः ॥ ४ ॥ पंचाशीतितमः सर्गः ८५. मायापिंजरवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जब चूड़ाला इंद्रका छलकार रही, तब-विचार किया कि ऐसा चरित्र राजाके मोहने निमित्त किया, तो भी राजा किसीविषे बंधायमान न भया, ज्योंका त्योंही रहा,बडा कल्याण हुआ जो राजा सत्ता सामान्यविषे स्थित इहा, ताते बडा आनंद हुआ अब अपर चरित्र करिये, जो क्रोध होवै, जिसविषे बडा खेद होवै, ऐसा विचार करि राजाकी परीक्षाके निमित्त, चरित्र किया, जब सायंकालका समय हुआ, तब गंगाके किनारे राजा संध्या करने लगा, अरु कुंभ वनविषे रहा; तब वनविषे संकल्पका मंदिर रचा, जैसे देवताकी रचना होती हैं, तैसे मंदिरके पास फूलोंकी बाड़ी पाई, अरु कल्प वृक्षते आदि नानाप्रकारके फूल फल संयुक्त वृक्ष रचे, ऐसे वनके स्थानविपे एक संकल्पकी शय्या रची अरु एक संकल्पका महासुंदर पुरुष रचा, तिससाथ सोए रही, अंगसों अंग लगायकार अरु गलेविषे फूलों की माला डारी, अरु कामचेष्टा करने लगी, तब राजा संध्या कार उठा, अरु राणीको देखने लगा, दृष्ट न आई, हूँढते ढूंढते तिस मंदिरके निकट आया तब क्या देखे कि, कामीपुरुषके साथ मदनिका सोई हुई है, अरु कामचेष्टा करते हैं, तब राजाने कहा भले आरामसाथ सोए पड़े हैं, सोते रहो इनके आनंदविचे विघ्न क्यों करिये। हे रामजी ! इसप्रकार राजाने अपनी स्त्रीको देखी, तौ भी शोकवान न हुआ, अरु क्रोध भी न किया, ज्योंका त्यों शांतपदविषे स्थित रहा, क्षोभको न प्राप्त भया,अरु मंदिर बाहिर निकले तहाँ एक स्वर्णकी