पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२८३

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( ११६४ ) योगवासिष्ठ । शिला पडीथी, तिस ऊपर बैठ रहा, अरु समाधिविपे स्थित भया, परंतु उन्मीलितलोचन तब दो घड़ी उपरांत सदनिका काम शुरुषको त्यागिकर बाहर आई, अह राजाके निकट आयकर अंगोंको नग्न किया, बहुर वस्त्रों साथ ढाँप जैसे अपर खियां कामकारे व्याकुल होती हैं, तैसे चूडालाको देखिकारे जाने छहा है। हे सदनिका । तू ऐसे । सुख त्यागिरि क्यों आई है, तू तो बडे आनंदकार मञ्च - थी, अब तहाँही फिरि जाडु, मेरे ताई तौ ही शोक कछु नहीं, मैं ज्योंका त्यों हैं। परंतु तेरी अरू कामी घुझपकी प्रीति पर देखी हैं, परस्पर श्रीति जगतदिधे नहीं होती अझ तुम्हारी देखी है, ताते तू उसको सुख दे वह तेरे ताई सुख देवे, अब जाडु, तब माँनका लाखों शिरको नीचे कारिकै बोली ।। हे भगवन् ! तुम क्षमा कृरौ, मेरे ऊपर क्रोध न झरौ, सुझते अवज्ञा छडी हुई है, परंतु मैं जान्कार नहीं करी, जैसा वृत्तांत है, सो अवण करौ, जब तुम ढुंध्या करने लगे, तब मैं वनविचे आई थी, वहाँ एक काम शुरुष मिलाप भया, मैं निर्बलथी वह बली था, तिसने मेरेको पकड लिया अरू जो पतिव्रता स्त्रीकी मर्यादा है, सो भी मैं करी कि उसपर क्रोध किया, अरू निरादर किया, अरु पुकार भी कृरी, यह तीनों पतिङ्गताकी पर्यादा है, सो मैं करी, अरू तुम दूर थे, वह बली था, मेरे ताई पकड़ लिया अरु गोविये बैठाय जो कछु। उसकी भावना थी, सो करी, हे अगवन् ! धुझविषे दूषण कछु नहीं ताते तुम क्षमा कौ क्रोध न करो ।। राजोवाच ॥ है सदनिका ! - मेरे ताई क्रोध ङ्कदाचित नहीं होता; आत्माही दृष्ट आता है, तो क्रोध किसपर करौं, मेरे ताई न कछु अहण है, न कछु त्याग करना है, तथापि यह कृस साधुओंझार निंदित है; ताते अब तेरा त्याग किया है, सुरवसे विचौंगा, अझ जो छमारा शुरू कुरूक्ष है, सो हमारे पासही हैं, वह अरु हम सदा निरागरूष हैं, अझ तूतौ दुर्वासा शापते उपजी है, तेरे साथ हमारा क्या क्योजन है, तू अब उसके पास जा ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे नवणकरणे मायापिंजरनै नाम पंचाशीतितमः सर्गः ॥ ८६॥