पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२८७

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(११६८ ) योगवासिष्ठ । अरू जलके छ हुए प्रतिबिंब भी सूर्यरूप होता है, तैसे मैरा चित्त भी आत्मरूष भया हैं, अब मैं निर्वाणपको झाप्त भया हौं, अरु सर्वते अतीत या हौं, अरु सर्वविजे स्थित हौं, जैसे आकाश सर्व पदार्थविषे स्थित है, अरु सर्व पदार्थते अतीत है, तैसे मैं भी हौं, अहं त्वं आदिक शब्द मेरे मधु भये हैं, अझ शांतिको प्राप्त भया हौं, अब मेरे विषे ऐसा तैसा शब्द कोऊ नहीं, मैं अद्वैत हौं, अझ चिन्मात्र हौं, न सूक्ष्म हौं, न स्थूल हौं । चुडालोवाच ॥ हे राजन् ! जो तू ऐसे स्थितहुआहै, तो तू अब क्या करैया, अब तेरे ताई या इच्छा है॥राजोवाच॥ हे देवी ! न मेरे कछु अंगीकार करने की इच्छा है, न त्याग करनेकी इच्छा है, जो कछु तू कहेगी सो कौंगा, तेरे कहनेका अंगीकार कौंगा जैसे मणि प्रतिबिंबको ग्रहण करती है, तैसे मैं तेरे वचनको अहण करौंगा ।। चूडालोवाच ।। हे प्राणपति ! हृदयझे शीतम राजा ! अब तू विष्णु हुआ है, अरु भला कार्य हुआ जो तेरी इच्छा नष्ट भई है ॥ हे राजन् ! अब तू अह मैं मोहते रहित होकर अपने प्रकृत आचारवि विचरै, अखेद जीवन्मुक्त हुए अपने प्रकृत आचारको हम क्यों ल्यागें ॥ हे राजन् ! जो अपने आवारको त्यागेंगे तौ अपर किसीका अहण करेंगे, ताते हम अपनेही आचारविचे विच, अह भोग मोक्ष दोनोंको भोगे हैं । हे रामजी ! ऐसे परस्पर विचार करते दिन व्यतीत भयो, अरु संध्याकालकी संध्या राज्ञा करत भया, बहार शय्याका आरंभ किया, तिसपर दोनों शयन झरत भए, अरु रात्रिको परस्पर चर्चाही करते रहे, एक क्षणी नाँई रात्रिको व्यतीत करी ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे चूडालाप्राकट्यवर्णने नाम घडशीतितमः सर्गः ॥ ८६॥ सप्ताशीतिः सर्गः ८७, शिखरध्वजचूडालाख्यानसमाप्तिवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! जब ऐसे रात्रि बीती, अरु सूर्यकिरणे पसरी, अरु सूर्यमुखी कमल खिल आए, तब राजाने स्नान्का आरंभ