पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२८९

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(११७० ) योगवासिष्ठ । अरु तीक्ष्ण वेगकार चले, तब आगे जो मंत्री अरु पुरवासी अपर नगरवासी थे सो राजाको लेने आये, अरु बडे आदर संयुक्त पूजन किया अरुअपने मंदिरविषे आनि स्थित भए, अष्ट दिन पर्यंत राजाको मिलने निमित्त लोकपाल मंडलेश्वर आते रहे, तिसते उपरांत राजा सिंहासनपर आय बैठा, अरु राज्य करने लगा, एक समदृष्टिको लिए दशसहस्र वर्षपर्यंत राज्य किया, चुडालासंयुक्त जीवन्मुक्त होकार विचरत भए, बहुरे विदेहमुक्त भए । हे रामजी! दशसहस्र वर्षपर्यंत राजा अरु चूडालाने राज्य किया, अरु सत्ता समानविषे स्थित रहे, किसी पदार्थविषे रागवान् न भए, अरु द्वेष भी न किया, ज्योंके त्यों शांत पदविषे स्थित रहे, जेती कछु राज्यकी चेष्टा हैं सो करते रहे, परंतु अंतःकरणकर किसीविषे बंधमान न भए, केवल आत्मपदविषे अचल रहे, बहुरे राजा अरु चूडाला विदेहमुक्तिको प्राप्त भए, जैसे आपको जानते थे, तिसी केवल परमाकाश अक्षोभ पदविणे जाय स्थित भए, जैसे तेलविना दीपक निर्वाण होता है, जैसे प्रारब्ध वेगके क्षय हुए निर्वाण पदविषे प्राप्त भये । हे रामजी ! जैसे शिखरध्वज अरु चुडाला जीवन्मुक्त होकर भोगको भोगते विचरे हैं, तैसे तुम भी रागद्वेषते रहित होकार विचरौ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिखरध्वजचूडालाख्यानसमाप्ति वर्णनं नाम सप्ताशीतितमः सर्गः ॥ ८७ ॥ अष्टाशीतितमः सर्गः ७६. बृहस्पतिबोधवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी । शिखरध्वजका वृत्तांत मैं संपूर्ण तुझको कहा; ऐसी दृष्टिको आश्रय करौ, कैसी दृष्टि है, जो पापका नाश करती हैं, तिस दृष्टिका आश्रय कार जिस मार्ग शिखरध्वज तत्पदको प्राप्त भया है, अरु जीवन्मुक्त होकर राज्यका व्यवहार किया है, तैसे तुम भी तत्पदका आश्रय करौ अरु तिसीमें परायण होउ, आत्मपदृको पायकार भौग मोक्ष दोनोंको भोगौ, अरु तिसी प्रकार बृहस्प