पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२९१

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(१३७२) योगवासिष्ठ । पूजन किया, अरु बृहस्पतिने कचको कैंट लगाया, तब कचने कहा, है पिता ! अबलग मेरे तांई शांति नहीं प्राप्त भई, अरु मैं सर्व त्याग भी किया कि, अपने पास कछु नहीं राखा, तोते जिसकार मेरा कल्याण होवे, खोई कहौ, तब बृहस्पतिने कहा ॥ हे तात ! अब भी सर्व त्याग नहीं किया ताते सर्व पद चित्तका नामहै, जब चित्तका त्याग करैगा,तब सर्वे त्याग होवैगा, ताते चित्तका त्याग करु॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी । ऐसे कहिकरि बृहस्पति आकाशको चला गया, तब कच विचारने लगा, कि पिताने सर्वपद चित्तको कहा है, सो चित्त क्या है, प्रथम वनके पदाथकों देखिकारे विचारत भया कि, यह चित्त हैं; तब देखा कि, यह भिन्न भिन्न हैं, ताते यह चित्त नहीं, अरु नेत्र भी चित्त तहीं, जो नेत्र श्रवण नहीं, श्रवण नेत्रहूते भिन्न हैं, अरु श्रवण भी चित्त नहीं, इसीप्रकार सर्व इंद्रि याँ चित्त नहीं, जो एकविषे दूसरेका अभाव है, ताते चित्त क्या है, जिसको जानकार त्याग करौं, बडार विचार किया कि, पिताके पासस्वर्गविषे जाऊँ ॥ हे रामजी ! ऐसे विचारकरि उठि खड़ा हुआ, दिगंबर आकार आकाशको चला, जब पिताके पास जाय प्राप्त भयो, तब पिताका पूजन किया, अरु कहा, हे तेतीस कोटि देवतोंके गुरु । चित्तका रूप क्या है, तिसका रूप कहाँ कि, मैं तिलको त्यागकरौं । बृहस्पतिरुवाच ॥ हे पुत्र । चित्त अहंकारका नाम है, सो अज्ञानते उपजा है, अरु आत्मज्ञान कारकै इसका नाश होता है, जैसे रसडीके अज्ञानते सर्प भासता है, अरु रसडीके जाननेते सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है, ताते अहंभावका त्याग कर, अरु स्वरूपविषे स्थित होहु । कच उवाच । है पिता! अहंभावकात्याग कैसे करौं, अहं तौ मैं हौं, बार अपनात्याग कृरिकै स्थित कैसे होऊ, इसका त्याग करना महाकठिन है। बृहस्पतिरुवाच ॥ हे तात ! अहंकारका त्याग करना तौ महासुगम है, फूलके मिलनेविषे भी कछु यत्न है, अरु नेत्रोंके खोलने अरु मिटनेविषे भी कछु यत्न है, परंतु अहंकारके त्यागनेविषे यत्न कछु नहीं ॥ हे पुत्र ! अहंकार वस्तु कछु नहीं, भ्रमकारकै उठा है, जैसे मूर्ख बालक अपने परछाईंविर्षे बैताल कल्पता है, अरु जेवरीविषे सर्प भासता है, अरु मरुस्थलविषे