पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२९२

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मिथ्यापुरुषाकाशरक्षाकरणवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११७३ ) जल कल्पता है, अरु आशविपे भ्रमकरि दो चंद्रमा भासते हैं, तैसे परिच्छिन्न अहंकार अपने प्रमादकर उपजा है, अरु आत्मा शुद्ध है। आकाशते भी निर्मल हैअरु देश काल वस्तुके परिच्छेदते रहित सत्ता समान चिन्मात्र है, तिसविषे स्थित होहु, जो तेरा स्वरूप है, अरु तू आत्मा है, तेरेविषे अहंकार कदाचित् नहीं. हे साधो ! आत्मा सर्वदा सर्व प्रकार सर्वविषे स्थित है, तिसविषे अहंभाव ऐसे हैं, जैसे धूड समुद्रविषे कदाचित् नहीं तैसे तिसविषे अहंकार कदाचित् नहीं, कैसा है आत्मा, जिसविषे न एक कहना है, न दो कहना है, केवल अपने आपविषे स्थित हैं, अरु जो आकार इष्ट आते हैं, सो चित्तके ऊरणेकरिके हैं, चित्तके नष्ट हुए आत्माही शेष रहता है, ताते अपने स्वरूपविषे स्थित हो, जो तेरा दुःख नष्ट हो जावे, अरु जो कछु यह दृष्ट आता है, तिसविषे भी आत्मा है, जैसे पत्र फूल फल सर्व बीजते उत्पन्न होते, तैसे सर्व आत्माका चमत्कार है ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे बृहस्पतिबोधवर्णन . नाम अष्टाशीतितमः सर्गः ॥ ८८ ॥ एकोननवतितमः सर्गः ८९. मिथ्यापुरुषाकाशरक्षाकरणम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जब इसप्रकार बृहस्पतिने उत्तम उपदेश किया तब कच श्रवण कारकै स्वरूपविषे स्थित भया । योग जो हैं। आत्मा अरु परिच्छिन्न अहंकारकी एकता तिसको प्राप्त भया,अरु आत्मस्वरूप हुआ, अरुजीवन्मुक्त होकार विचरत भया । हे रामजी ! जैसे कच जीवन्मुक्त होकर विचरा है, निरहंकार हुआ तैसे तू भी निराश होकार विचरु, केवल अद्वैत पदको प्राप्त होहु, जो निर्मल अरु शुद्ध है। जिसविषे एक अरु दो कहना नहीं, तू तिस पदविषे स्थित होहु, तेरेविड़े दुःख कोई नहीं, तू आत्मा है, अरुतेरेविषे अहंकार नहीं, तुग्रहण त्याग किसका करै, जो पदार्थ होवै नहीं, तिसका ग्रहण त्याग क्या कहिये । हे रामजी । जैसे आकाशके वनविषे फूल हैं नहीं, तिसका ग्रहण क्या,