पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२९३

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(११७४ ) योगवासिष्ठ । अरु त्याग क्या तैसे आत्माविषे अहंकार नहीं, जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, सो अहंकारका ग्रहण त्याग नहीं करते, अरु मूर्खको एक आत्माविषे नाना आकार भासते हैं, किसीका शोक करना, कहूं हर्ष करना, अरु तू कैसे दुःखका नाश चाहता है, दुःख तेरेविषे है नहीं, तू कैसे नाश करनेको, समर्थ हुआ हैं, अरु जेते कछु आकार भासते हैं, सो मिथ्या हैं, तिनविषे जो अधिष्ठान है, सो सत् हैं, अरु मूर्ख मिथ्याकरिकै सतकी रक्षा करते हैं, जो मेरे दुःख नाश होवें ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम्हारे प्रसादकारिकै मैं तृप्त हुआ हौं, तुम्हारे वचनरूपी अमृतकर अघाया हौं जैसे पपैया एक बूंदको चाहता है, अरु कृपाकरिकै मेघ तिसपर वर्षाकरता है, अरु अघाय रहता है, तैसे मैं तुम्हारी शरणको प्राप्त हुआथा,अरु तुम्हारे दर्शनकीइच्छा बूंदकी नई करता था, अरु तुमने कृपा करिकै ज्ञानरूपी अमृतकी वर्षा करी, तिस वर्ष कारकै मैं अघाय रहा हौं, अब मैं शतिपको प्राप्त हुआ हौं, तीनों ताप मेरे मिटि गये हैं, कोऊ फुरणा मेरेविषे नहीं रहा, अरु तुम्हारे अमृत वचनोंको श्रवण करता तृप्त नहीं होता, जैसे चकोर चंद्रमाको देखिकार किरणोंते तृप्त नहीं होता, तैसे तुम्हारे अमृतरूपी वचनोंकरि मैं तृप्त नहीं होता, ताते प्रश्न करता हौं तिसका उत्तर कृपाकार कहौ । हे भगवन् ! मिथ्या क्या है, अरु सत् क्या है, जिसकी रक्षा करते हैं ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! इसके ऊपर एक आख्यान है सो कहता हौं; जिसके सुननेते हाँसी आवै, एक आकाशविषे शून्य वन है, तिसविषे एक मूर्ख बालक है, जो आप मिथ्या हैं, अरु सत्यके राखनेकी इच्छा करता है कि, मैं इसकी रक्षा कराँगा, अधिष्ठान जो सत्य है, तिसको नहीं जानता, अरु मूर्खता कारकै दुःख पाता है, क्या जानता है सो श्रवण करु, यह आकाश है; मैं भी आकाश हौं, मेरा आकाश है, मैं आकाशकी रक्षा कराँगा, ऐसे विचार कर एक गृह बनाया, गृहविषे जो आकाश हैं तिसकी रक्षा करौंगा, जो इसका नाशन होवे इस निमित्त गृह बनाया ॥ हे रामजी । ऐसे विचारकरिकैगृहकीबनावट बहुत करी, जब किसी औरते टूटै तब बहुरि बनाय लेवै, जब केताकाल इसप्रकार व्यतीत भया तब कालकार गृह गिरपड़ा तब रुदन करने