पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२९४

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मिथ्यापुरुषाकाशरक्षाकरणवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११७५) लगा, हाय हाय, मेरा आकाश नष्ट होगया, जैसे एक ऋतु व्यतीत होवे अरु दूसरा आवे तैसे कालकार गृह गिर गया, तिसते उपरांत एक कुँआ बनाया, अरु कहने लगा कि, यह आकाश ने जावैगा, जो इसकी भली प्रकार रक्षा करौंगा॥ हे रामजी ! इसप्रकार कुएको बनाकरि सुख माना, जब केतक काल बीता तब जैसे सूखा पात वृक्षते गिरता है, तैसे कुँआ भी गिर पड़ा, तब बडे शोकको प्राप्त भया कि, मेरा आकाश गिर पडा, नष्ट होगया, मैं क्या करौंगा, ऐसे शोकसंयुक्त केतक काल बीता तब एक कुटी बनाई, जैसे अनाज राखनेके निमित्त बनाते हैं तैसे बनायकार कहने लगा कि, अब मेरा आकाश कहाँ जावैगा, मैं अब इसकी भली प्रकार रक्षा कराँगा, ऐसी कुटी करके बहुत सुख माना, जब केतक काल व्यतीत भया, तब वह कुटी भी तूटि पड़ी, जो उपजी वस्तुका विनाश होना अवश्य हैं, बहुरि रुदन करने लगा कि, मेरा आकाश नष्ट होगया, जब केतक काल शोकसंयुक्त बीता तब एक घट बनाया:अरु घटाकाशकी रक्षा करने लगा, तब केतक कालकार घट भी नष्ट होगया, बहुरि एक कुंड बनाया, अरु कुंडाकाशकी रक्षा करने लगा, केतक -कालकर कुंड भी नष्ट होगया, तब शोकवान् हुआ बार एक हवेली बनाई अरु कहने लेगा; अब मेरा आकाश कहां जावैगा, मैं इसकी भलीप्रकार रक्षा कराँगा, अरु बडे हर्षको प्राप्त हुआ जब केतक काल व्यतीत भया, तब वह हवेली भी गिर पड़ी, बहुरि दुःखको प्राप्त भया कि, हाय हाय, मेरा आकाश नष्ट होगया, मेरे तांई बड़ा कष्ट आनि प्राप्त भया हैं ॥ हे। रामजी । इसी प्रकार आत्मज्ञानविना अरु आकाशके जाननेविना मूर्ख बालक दुःख पाता रहा, जो आपको भी यथार्थ जानता, अरु आकाशको भी ज्योंका त्यों जानता, तौ यह कष्ट काहेको पाता ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मिथ्यापुरुषाकाशरक्षाकरणं नाम एकोननवतितमः सर्गः ॥ ८९ ॥