पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२९५

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{ ११७६ ) योगवासिष्ठ । नवतितमः सर्गः ९०. मिथ्यापुरुषोपाख्यानसमाप्तिवर्णनम् । राम उवाच॥ हे भगवन्! मिथ्यापुरुष कौन था, अरुजिसकी रक्षा करता था, सो आकाश क्या था अरु जो गृह कूप आदिक बनावता था, सो क्या था ? यह प्रगट कार कहौ । वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी । मिथ्यापुरुष जो संवेदन फुरणेते उपजा अहंकार है, अरु आकाश चिदाकाश है, तिसते उपजा बहुर जानता है कि, मैं आकाशकी रक्षा करौं, अरु आकाश गृहघटादिक जो कहा सो देह है, तिसविषे जो आत्मा अधिष्ठान हैं, तिस आत्माकी रक्षा करणेकी इच्छा मूर्खता करिकै करता है, आपको नहीं जानता, कि मेरा स्वरूप क्या है, तिस अपने स्वरूपको न जाननेकार दुःख पाता है, आप है, मिथ्या अरु मिथ्या होकर आगे आकाशको कल्पिकार राखणेकी इच्छा करता है, जो देहकारिकै देहीके राखणेकी इच्छा करता हैं कि, मैं जीता रहौं, अरु देह तौ कालकर उपजा हैं, बहुरि देहके नष्ट होनेकर शोकवान होता हैं, अरु अपने वास्तव स्वरूप वस्तुको नहीं जानता, तिसका नाश कदाचित नहीं होता, ऐसे विचारते रहित केश पाता है ॥ हे रामजी ! जिसविषे भ्रम उपजता है, तिसका अधिष्ठान सत्ता नहीं होता, सर्वका अपना आप आत्मा है, सो कदाचित् नाश नहीं होता तिसविषे मूर्खताकारकै अहंरूप संसारको कल्पता है, अरु एते इसके नाम हैं अहंकार, मन, जीव, बुद्धि, चित्त, माया, प्रकृति, दृश्य यह सर्व इसके नाम हैं, सो मिथ्या हैं, अरु इसका अत्यंत अभाव है, अनहोता उदय हुआ है, जो मैं हौं, क्षत्रिय ब्राह्मणवर्ण आश्रम अरु मनुष्य देवता दैत्य इत्यादिक कल्पना करता है ॥ हे रामजी! यह कदाचित् हुआ नहीं, अरु न होवैगा, न किसी काल न किसीको है, अविचारसिद्ध है, विचार कियेते कछु नहीं. जैसे जेवरीके अज्ञानते सर्प कल्पता हैं, अरु जाननेते नष्ट हो जाता है। तैसे स्वरूपके प्रमादकारे अहंकार उदय हुआ है, सो तेरा स्वरूप कैसा है श्रवण करु, आत्मा है अरु प्रकाशरूप है, निर्मल है, जो विद्याअविद्याके