पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२९६

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मिथ्यापुरुषोपाख्यानसमाप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११७७ ) कार्यते रहित चेतनमात्र है, अरु निर्विकल्प है, ज्योंका त्यों स्थित है, अद्वैत है, अरु प्राणको कदाचित् नहीं प्राप्त होता,आत्मत्वमात्र है,तिसविषे संसार कैसे होवै, अरु अहंकार कैसे होवे, सम्यकुदर्शीको आत्माते इतर नहीं भासता,अरुअसम्यक्दशौंको संसार भासताहै,पदार्थको सजानता हैं, अरु संसारको वास्तव जानता है, जो अपने वास्तव स्वरूपको नहीं जानता हैं, कि मैं कौन हौं, जाननेते अहंकार नष्ट हो जाता है, अरु जेती कछु आपदा हैं, तिनकी खानि अहंकार है, सर्व ताप अहंकारते उत्पन्न होते हैं, इसके नष्ट हुए अपने स्वरूपविषे स्थित होता है,अरु विश्व भी आत्माको चमत्कार, इतर नहीं, जैसेसमुद्रविषेपवनकारनानाप्रकारके तरंग भासते हैं,अरुस्वर्णविषे नानाप्रकारके भूषण भासतेहैं, सो वहीरूप भिन्न कछु नहीं, तैसे आत्माते विश्व भिन्न कछु नहीं, अरु स्वर्ण भी परिणामकरि भूषण होता है, अरु समुद्र भी परिणामकार तरंग होता हैं, अरु आत्मा अच्युत है, परिणामको नहीं प्राप्त भया, ताते समुद्र अरु स्वर्णते विलक्षण है, आत्माविषे संवेदनकर चमत्कारमात्र विश्व है, सो आत्मामात्र स्वरूप हैं, सो न कदाचित् जन्मा है। न मृत्युको प्राप्त होता है, न किसीकालविषे न किसीसों मृतक है, ज्योंका त्यों आत्मा स्थित है, अरु जन्म मृत्यु तब होवै जब दूसरा होवे, आत्मा तौ अद्वैत है, जिसविषे एक कहना भी नहीं, तो दूसरा कहाँ होवे, ताते प्रत्यक् आत्मा अपना अनुभवरूप है, तिसविषे स्थित होहु, तब दुःख ताप सब नष्ट हो जावें, सो आत्मा शुद्ध हैं, अरु निराकार हैं । हे रामजी ! जो निराकार शुद्ध है, सो किसकार ग्रहण करिये अरु रक्षा कैसे कारये कौन समर्थ है, जो रक्षा करै, जैसे घटके नष्ट हुए घटाकाश नष्ट नहीं होता, तैसे देहके नष्ट हुए देही आत्माका नाश नहीं होता, आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों है, अरु जन्ममरण पुर्यष्टका कारकै भासते हैं, जब पुर्यष्टका देहते निकस जातीहै, तब मृतक भासताहै, जब पुर्यएका संयुक्तहै, तब जीवत भासता है, अरु आत्मा सूक्ष्मते सूक्ष्म, अरु स्थूलते स्थूल, तिसका ग्रहण कैसे हो, अरु रक्षा कैसे कारये, अरु स्थूल भी उपदेश जतावनेके निमित्त कहता है, आत्मा वाचाते अगोचर है, अरु भाव अभावरूप संसारते