पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२९७

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( ११७८ ) योगवासिष्ठ । रहित है, सर्वका अनुभवरूप है, तिसविषे स्थित होकर अहंकारका त्याग कर अपने स्वरूप प्रत्यक् आत्माविषे स्थित होहु ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मिथ्यापुरुषोपाख्यानसमाप्ति वर्णनं नाम नवतितमः सर्गः ॥ ९० ॥ एकनवतितमः सर्गः ९१. परमार्थयोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे, रामजी ! यह संसार आत्मरूप है, जैसे इसकी उत्पत्ति भई है, सो सुन. शुद्ध आत्मा निर्विकल्पविषे विवर्त्त चेतनलक्षण मनकार स्थित भयाहै, अरु आगे तिसने जगत्व कल्पनाकरीहे, सो मन कैसा है, जैसे समुद्रविषे तरंग अरु स्वर्णविषे भूषण, जेवरीविषे सर्प, सूर्यकी किरणोंविषे जलाभास, तैसे आत्माविषे विवर्त्त मन है, सो आत्माते इतर कछु नहीं, जिसको तरंगका ज्ञान है, तिसको समुद्बुद्धि नहीं होती, अरु तरंगको अपर जानता है, जिसको भूषणका ज्ञान हैं, सो स्वर्णको नहीं जानता, अरु सर्पके ज्ञानकार जेवरीको नहीं जानता अरु जलके ज्ञानकार किरणोंको नहीं जानता; तैसे नानाप्रकार विश्वके ज्ञानकार परमात्माको नहीं जानता, जैसे जिस पुरुषने समुद्रको जाना है, जो जल है, तिसको तरंग बुद्बुदे भी जलही भासते, भिन्न कछु नहीं भासता, सो पुरुष निर्विकल्प है, अरु जिसको जेवरीका ज्ञान हुआ,ति सको सर्पबुद्धि नहीं होती सो पुरुष निर्विकल्प हैं, अरु जिसको स्वर्णका ज्ञान हुआ है, तिसको भूषणबुद्धि नहीं होती, ऐसा पुरुषहै, सो निर्विकस्प हैं, जिसको किरणों का ज्ञान हुआ है, तिसको जलबुद्धि नहीं होती, तैसे जिस पुरुषको निर्विकल्प आत्माका ज्ञान हुवाहै, तिसको संसारभावना नहीं होती, तिसको ब्रह्मही भासता है, ऐसा जो मुनीश्वर, सोज्ञानवान् है । हे रामजी ! मन भी आत्माते इतर कछु नहीं, आदि जो परमात्माते मन होकार फुरा है, सो अहं त्वं आदिकहोकार फुरा, मात्र पदविषे जो अहंभाव होना सो उत्थान है, बहिर्मुख होनेकार अपने निर्विकल्प