पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३०३

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( ११८४ ) योगवासिष्ठ । रूपी धूड मेरे हृदयविषे उठीहै, तिसलो वचनरूपी वर्षाकरि शांत करौ । अरुसंशयरूपी मेरे हृदयविषे अंधकार है, वचनरूपी क्रीडाकार तुम निवृत्त करौ, तुम्हारे वचनरूपी अमृतकार मैं तृप्त नहीं होता. हे भगवन् ! अपने विचार ज्ञानकोरे यह गुरुके उपदेश कियेविना नहीं शोभता । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! जो पुरुष शांतिमान् अरु क्षमावान् अरु इंद्रियजित है, अरु मनकी क्रिया, संकल्पविकल्पको जीता है, सो सिद्धांतका पात्र है ॥ है रामजी ! तू जब सिद्धांतका पात्र है, ताते उपदेश करता हौं अरु जो पुरुष रागद्वेषसहित क्रियाविषे स्थित हैं, अरु इंद्रियोंके सुखकार जिसको आराम है, सो सिद्धांतके वाक्य अहं ब्रह्म अस्मि, सर्व ब्रह्म तिनको श्रवणकार भोगविषे स्थित होता है, अरु अधोगतिको पाता है, काहेते कि, उसको निश्चय नहीं होता हृदय तिसका मलिन है, ताते इंद्रियोंके सुखकर आपको सुखी मानता है, इसी नीच स्थानोंको प्राप्त होता है, अरु जो पुरुष क्षमा आदिक साधनकार पवित्र हुआ है, तिसको अहं ब्रह्म अस्मि, सर्व ब्रह्मके श्रवणकार शीत्रही भावनाते आत्मपदकी प्राप्ति होती है, अरु तुमसारखे जो पुरुष हैं, क्षमा आदिक साधनकरि पवित्र हुए हैं, तिनको स्वरूपकी प्राप्ति सुगम होती हैं, अरु जिसका अंतःकरण मलिन है, तिनको प्राप्त होना कठिन है, जैसे भूना बीज कलरकी पृथ्वीविषे बोइये, तब उसकी अंगुरी नहीं होती, तैसे इंद्रियारामी पुरु घको आत्माकी प्राप्ति नहीं होती, अरु तुमसारखे जिनका हृदय शुद्ध है, तिनको ज्ञानकी प्राप्ति होती है, अरु इन वचनोंको पायकार शोभते हैं, जैसे वर्षाकालविपे धान पृथ्वीमें शोभा पाते हैं, वर्षा कारकै तैसे सिद्धांत वचनोंको पायकार ज्ञानरूपी दीकपसों प्रकाशते हैं, अरु जो ज्ञानवान् पुरुष ऊंची बाँहोंकार कहते हैं, अरु सर्वशास्त्र भी कहते हैं। सो सर्व शास्त्रोंके सिद्धांतको अरु तिनके दृष्टांतको मैं जानता हौं, ताते सर्व सिद्धांतोंका सार कहता हौं तूश्रवण कर, कि तेरा स्वरूप है, तिसको जानैगा ॥ हे रामजी । जिसको अभ्यास कारकै एक क्षण भी साक्षात्कार हुआ है, सो बहुवारि गर्भविषे नहीं आता अरु सत् असविषे भेद कछु नहीं, उसके संवेदनविधे भेद है, जैसे जाग्रतका सूर्य अरु स्वप्नका