पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३०४

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कलनानिषेधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११८५) सूर्य प्रकाश दोनोंका समान है, जाविषे जागृत सूर्यको प्रकाश अर्थाकार होता है, अरु स्वप्नविषे स्वप्नका सूर्य अर्थाकार होता है, प्रकाश दोनोंका सम है, अरु संविभिन्न है, स्वमको मिथ्या जानता है, अरु जाग्रतको सत्य जानता है, संवेदनते भेद हुआ स्वरूपते भेद कछु न हुआ, जैसे एक बड़ा पर्वत मन कारकै रचिये तौ संकल्पकार देखता है, अरु एक पर्वत बाहिर प्रत्यक्षकार देखता है, तौ संवित् करिकै भेद हुआ, स्वरूप दोनोंका तुल्य है, जैसे समुद्रविषे तरंग हैं, स्वरूपविषे जलतरंगोंका भेद कछु नहीं, जिसको जलका ज्ञान नहीं सो तरंगही जानता है, ताते संविविषे भेद है, तैसे स्वरूपविषे सत् असत तुल्य हैं, वास्तव कछु नहीं, केवल शांतरूप आत्मा है, अरु शब्द् अर्थ संवेदनविषे हैं, शब्द कहिये नाम, अर्थ कहिये नामी सो संवेदन फुरऐकरिकै है, जब ऊरणा नष्ट हो जावै, तब सर्व अर्थ भी आत्मा है ऐसे भासैगा, जगत्की सत्ता तबलग है, जबलग आत्माका प्रमाद है, अरु प्रमाद तबलग है, जबलग अहंभाव है, जब अहंभाव नष्ट हो जावै, तब केवल आत्मा शेष रहै, सो आत्मा शुद्ध है, विद्याअविद्याके कार्यते रहित है, कदाचित् स्पर्श नहीं किया ॥ हे रामजी । अविद्याकी दो शक्ति हैं, एक आवरण, एक विक्षेप, आवरण कहिये, आत्माको न जानना, विक्षेप कहिये अपर कछु जानना सो आत्मा सदा ज्ञानरूप है, तिसको आवरण कदाचित् नहीं, आत्मा अद्वैत हैं, तिसते इतर कछु नहीं बना, इसीते आत्मा शुद्ध है, केवल ज्ञानमात्र है । हे रामजी ! तिसविषे कलनारूपी धूड़ कहां हो, जो आत्ममात्र है, चिन्मात्र जिसविषे अहंकार उत्थान नहीं है, केवल निर्वाणिपद् है, जहाँ एक अरु द्वैत कहना भी नहीं; केवल अपने आपविपे स्थित है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जो सर्व ब्रह्म है तो मन बुद्धि आदिक यह कौन हैं, जिसकार तुम यह शास्त्र उपदेश करते हौ ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । शास्त्रके व्यवहारके अर्थ शब्द यह है, परमार्थते कल्पना है नहीं, यह मन बुद्धि आदिक कछु वस्तु नहीं, ब्रह्मसत्ताही अपने आपविषे स्थित है, जैसे तरंग जलते इंतर कछु