पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३०५

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(११८६), योगवासिष्ठ । वस्तु नहीं, तैसे मनादिक हैं, आत्मतत्त्व कैसा हैं, नित्य है, शुद्ध है, सन्मात्र है, नाहींकी नाईं स्थित है । हे रामजी । ऐसे आत्माविषे संसार अविद्याका नाम आदिक कैसे होवे, आत्मा ब्रह्म हैं, जिसते इतर कछु नहीं, सर्व अधिष्ठान है, अरु अविनाशी है, देश काल वस्तुके परिच्छेदते रहित है, इसीते ब्रह्म है ॥ हे रामजी ! ऐसा जो अपना आप आत्मा है, तिसविषे स्थित होडु, अरु यह जगत् जो दृष्ट आता है, तो सर्व चिदाकाश है, इतर कछु नहीं, जैसे स्वप्नविषे विश्व देखता है सो अनुभवमात्र हैं, जैसे जाग्रत् विश्व आत्मरूप हैं, ऐसा जो तेरा शुद्ध अरु नित्य उदित अविनाशी रूप है तिसविषे जब स्थित होवैगा, तब कलना जो तेरे ताई भासती है, सो नष्ट हो जावेगी ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे कलनानिषेधवर्णनं नाम त्रिनवतितमः सर्गः ॥ ९३ ॥ चतुर्नवतितमः सर्गः ९४, संतलक्षणमाहात्म्यवर्णनम् ।। • वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । संसारका बीज अहंकार है, जब अहंभाव होता है, तब संसार होता है, सो अहंकार कछु वस्तु नहीं, भ्रमकारकै सिद्धहुआ है, जैसे मूर्ख बालक परछाईंविषे पिशाच कल्पताहै, सो पिशाच । कछ वस्तु नहीं, उसके भ्रमविषे होता है, तैसे अहंकार कछु वस्तु नहीं, स्वरूपके भ्रमविष होता है । हे रामजी ! जो वास्तव कछुवस्तु न होवे, तिसके त्यागनेविषे यत्न कछु नहीं, तेरेविषे अहंकार वास्तव नही, तू केवल शतिरूप चेतनमात्र है, तिसविषे अहंभाव होना उपाधि है,तिसते सुमेरु पर्वत आदिक जगत बनि जाता है, सो संवेदनरूप है, चित्तरूपी पुरुष चेतनके आश्रयते फुरता है; अरु विश्व कल्पता है, जैसे जेवरीके आश्रयते सप फुरता है, तैसे चेतनके आश्रय विश्व अरु चित्त फुग्ते हैं, तो आत्माते इतर नहीं, अरु अहंकार हुएकी नाईं हुआ है. जो मैं हौं, ४ा जो अहंभाव हैं; सो दुःखकी खाण है, सर्व आपदा अहंकारते होतीहैं, जब , अहंकार नष्ट होवैगा, तब सर्व दुःख नष्ट हो