पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३१०

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इक्ष्वाकुप्रत्यक्षोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११९१) रही है, दरिद्री कदाचित् न होवे, तिसके यशकरिसंपूर्ण पृथ्वी पूरिरहीथी, जैसे चंद्रमाकी चांदनीकरि रात्रि पूर्ण होती है, ऐसा राजा भली प्रकार प्रजाकी पालना करतभया. एक काल तिसके मनविषे विचार उपजा कि जरा मरण आदिक संसारविषे बडा क्षोभ है, इस संसारदुःखके तरणेका उपाय कौन है, ऐसे विचारता था कि, एक समय शंभु मुनि ब्रह्मलोकते आया, तिसका भली प्रकार पूजन किया, अरु कहत भया । इक्ष्वा-, कुरुवाच ।। हे भगवन् ! तुम्हारी कृपाका जो पराक्रम है, सो मेरे हृदयविणे, बैठिकार प्रश्न करनेको प्रेरता है, ताते मैं प्रश्न करता हौं । हे भगवन् ! मेरै हृदयविषे संसार फुरता है, जैसे समुद्रको बडवाग्नि जलाता है, तैसे मुझको संसार जलाता है,ताते सोई उपाय कहौ जिसकार मुझको शांति प्राप्त होवे॥ हे भगवन्! यह संसार कहते उपजा है,अरु दृश्यका स्वरूप क्या है,अरु कैसे निवृत्त होता है, जैसे जालसों पक्षी निकसि जाता है, तैसे जन्म मरण संसार महाजाल है, तिसते निकसनेका उपाय सुझको कहौ, जैसे वरुण सब स्थान समुदके जानता है, वैसे तुम जगतके सब व्यवहारको जानते हो, अरु संशयरूपी वृक्षके काटनेहारे तुम कुहाडे हौ, अरु अज्ञानरूपी तमके नाशकतां तुम सूर्य हौ, तुम्हारे अमृतरूपी वचनोंकरि मैं शांतिको प्राप्त होऊँगा ।। सुनिरुवाच ॥ हे साधो । मैं चिरकालपर्यंत जगतविषे विचरता रहता हैं परंतु ऐसा प्रश्न किसीने नहीं किया, तुझने परमसार प्रश्न किया है, सर्व अनर्थके नाश करनेहारा प्रश्न है, तेरी बुद्धि विवेककार विकासमान हुई दृष्ट आती है ॥ हे राजन् । जो कछु जगत् तुझको भासता है, सो सब असत् है, जैसे जेवरीविषे सर्प, जैसे गंधर्वनगर जैसे मरुस्थलविषे जल, जैसे सीपीविषे रूपा, जैसे आकाशविषे नीलता, दूसरा चंद्रमा भ्रम कार भासता है, तैसे यह जगत् असत्यरूप है, जैसे जलविषे चक्रतरंग असत्रूप हैं, तैसे जगत् असत्रूप है, अरु जो मन सहित ष इंद्रियोंते अतीत हैं, अरु शून्य भी नहीं, सो सत् अविनाशी आत्मा कहता है, सो निर्मल परमब्रह्म सवें ओरते पूर्ण अनंत है, तिसविषे जगत् कल्पित हैं ॥ हे राजन् ! जैसे सर्वं वृक्षोंविषे एकही रस व्यापक है, तैसे सर्व पदार्थांविषे एक