पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३११

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((११९२ ) योगवासिष्ठ ।,, चिन्मात्रसत्ता व्यापक हैं, जैसे समुद्र अचलविषे, द्रुवताकारकै तरंग फुरते हैं, तैसे परमात्माविषे जगत् फुरते हैं, तिस महादर्पणविषे सर्ववस्तुजात प्रतिबिंब होते हैं, जैसे समुद्रविषे कोऊतरंगरूप, कोऊ बुबुदे चक्रादिक होते हैं, तैसे आत्माविषे जीवादिक आभास होते हैं, प्रथम फुरणरूप होते हैं, पाछे कारणकार्यरूप होते हैं, सो चित्तशक्ति अपने संकल्पते भूतादिक देह रचिकर तिसविषे स्वरूपके प्रमादकर आत्मअभिमान करता हैं, जैसे पुराणको अपनी क्रिया अपने बंधनके निमित्त होती है, तैसे इसको अपना संकल्प अपने बंधनका कारण होता है, हे राजन्! जीवकलाको स्वरूपका अज्ञान हुआ है, सो जैसे बालकको अपनी परछाईं यक्षरूप होकार भय देती है। तैसे यह नानाप्रकारके आरंभको प्राप्त हुआ है, अकारणही ब्रह्मशक्ति ऊरणकारकै कारणभावको प्राप्त हुआ है, तिसार बंधअरु मोक्ष भासते हैं, वास्तवते न बंध है,न मोक्ष है, निरामय ब्रह्महीअपनेआपविषेस्थित है, तिसविषे एक अरु अनेक कहना कछु नहीं, ताते बंधमोक्षकी कल्पज्ञाको त्यागिकार अपने स्वभावविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे इक्ष्वाकुप्रत्यक्षोपदेशो नाम पंचनवतितमः सर्गः ॥ ९९॥ षण्णवतितमः सर्गः ९६. राजाइक्ष्वाकुप्रत्यक्षोपदेशवर्णनम् ।। मुनिरुवाच ॥ हे राजन् !जैसे द्रुवताकारकै जलही तरंग भावको प्राप्त होता है, जैसे चिन्मात्रही संकल्पके फुरणेकरि जीव होता है, सो जीव संसारविषे कर्मोके वशते भ्रमता हुआ, आपको कर्ता देखता है, अरु । सर्वात्मा परमब्रह्म कर्ता हुआ भी कछु नहीं करता, जैसे सूर्यकार: सब चेष्टा होती है, अरु सूर्य अकर्ता है, तैसे आत्माकी शक्तिकार जगत् चेष्टा करता है, जैसे चुंबक पत्थरके निकट लोहा चेष्टा करता है, तैसे आत्माकी चेतनताकार सब देहादिक चेष्टा करता है, अरु आत्मा. सदा अकर्ता है, जैसे जलविषे तरंग फुरते हैं, तैसे आत्माविषे देहादिक फुरते