पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३१६

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राजाइक्ष्वाकुप्रत्यक्षोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( ११९७) हो आती हैं, तैसे आत्मरूपी मणि वासनारूपी तृणकरि आच्छादित हैं, जब वासनारूपी तृण दूर करियेतब आत्मरूपी मणिप्रगट होआवै॥ • हे राजन् ! जाग्रत स्वप्न सुषुप्तिते रहित जो आत्मपद हैं, जब तिसको प्राप्त होवैगा, तब जानैगा कि मैं मुक्त हौं, सो तेरा स्वरूप है, तिस पदविषे स्थित होहु, जो केवल आत्मरूप है, अरु अजन्मा है, नित्य है, अरु चेतनमात्र हैं, सर्वका अपना आप है, तिसके प्रमाकरि दुःख होता है, जैसे बालक मृत्तिकाके खिलौने बनाते हैं, हस्ती घोडा नाम कल्पते हैं, अभिमान करते हैं कि, मेरे हैं, अरु तिनके नाश होनेकार दुःखी होते हैं, जैसे अज्ञानी जो है बालकरूप सो स्वरूपके प्रमादकर अभिमान करता है, यह मेरे हैं, मैं इनका हौं, तिनके नाश होनेकार दुःखी होता है, ऐसे नहीं जानता कि, सत्का नाश नहीं होता, असक्के नाश होनेकार सत्का नाश मानता हैं, जैसे घटके नाश होनेकर घटाकाश नाश मानिये, तैसे मूर्खताकारकै दुःख पाता हैं॥ हे राजन् । तू आपको आत्मा जान, अरु आत्मादिक संज्ञा भी शास्त्रोंने कल्पी हैं, जतानेके निमित्त, नहीं तौ आत्मा अनिर्वाच्य पद है, जिसविषे वाणीकी गम नहीं, अरु इनहींकार जानता है, काहेते कि, मनवाणीविषे भी आत्मसत्ता है, तिसीकर आत्मादिक संज्ञा सिद्ध होती हैं, जैसे जेते कछु स्वप्नके पदार्थ हैं,तिनविषे अनुभवसत्ता है,तिसीकार पदार्थ सिद्ध होते हैं, तैसे जेती कछु अर्थसंज्ञा हैं, सो सब आत्माकरि सिद्ध होती हैं। ऐसा जो तेरा स्वरूप है, तिसविषे स्थित होहु, जो तेरे जरा मृतादिक दुःख नष्ट हो जावें ॥ हे राजन् ! जब निस्पंद होकार देखैगा, तब स्पंदविषे भी वही भासैगा, स्पंद निस्पंद तुल्य हो कार भासँगे, जो समाधि विषे होवैगा, अथवा ऐसेही चेष्टा करेगा, तो भी तुल्य होवैगी, न समाधिविषे शांति भासैगी, न चेष्टाविषे दुःख भासैगा, दोनोंविषे एकरस रहेगा, विषमता कछु न भासैगी ॥ हे राजन् ! जो कछु प्रकृत आचार आय प्राप्त होवै, देना अथवा लेना; यज्ञ दान आदिक क्रिया है, तिसको मर्यादासहित अरु शास्त्रकी विधिसंयुक्त करु, अरु निश्चय आत्मा स्वरूपविषे होवै, जैसे नट स्वांगको धारि संपूर्ण चेष्टा