पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३१७

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१११९८) :- योगवासिष्ठ । करता है, अरु निश्चय तिसविषे नटत्वहीको राखता है, तैसे तुम सर्व चेष्टा करौ तिसके अभिमान अरु संकल्पते रहित हो, ग्रहण अथवा त्याग जो कछु स्वाभाविक आय प्राप्त होवे, तिसविषे ज्योंके त्यों रहौ, जब निर्विकल्प होकर अपने स्वरूपको देखेगा, तब उत्थान कालविषे भी तेरे ताई आत्माही भासैगा, जैसे जलके जाननेते तरंग फेन बुद्बुदा सर्वं जलही भासते हैं, तैसे जब तू आत्माको जानेगा, तब तुझको संसार भी आत्मरूप भासेगा, अरु जो आत्माको नहीं जानता तिसको जगतही दृष्ट आता है, तिसकार दुःख पाता है, ताते तू अंतर्मुख हो, * संकल्पको त्यागिकार परम निर्वाण अच्युत पदविषे स्थित होई ॥ . इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे इक्ष्वाकुप्रत्यक्षोपदेशो नाम पण्णवतितमः सर्गः ॥ ९६ ॥ सप्तनवतितमः सर्गः ७९. ' मनुइक्ष्वाकुआख्याने सर्वब्रह्मप्रतिपादनम् । मनुरुवाच ॥ हे राजन् ! यह जो संकल्प पुरुष है, सो संकल्पकारिकै आप बँधाता है, अरु आपही मुक्त होता है, जब संकल्पकार दृश्यकी भावना करता है, तब जन्ममृत्युको पाता है, अरुःखी होता है, आपही संकल्प करता है, आपही बंधनको प्राप्त होता है, जैसे घुराण कीट आपही गुफा बनाती है, अरु आपही तिसको मूंदकर हँसती है, तैसे ।' अपने संकल्पकार आपही दुःख पाता है। अरु जब संकल्पको अंतर्मुख करता है, तब मुक्त होता है, अरु मुक्तिही मानता है, तोते हे राजन् ! संकल्पको त्यागिकार आत्मा जो सर्वका अपना आप है, तिसकी भावना करु, जो तु सुखी होवै ॥ हे राजन्! आत्माकेप्रमादकर देह आस्थाकी भावना हुई है, तिसकरि दुःख पाता है, ताते आत्मस्वरूपकी भावना करु कि तू आत्मा, है चिद्रूप हैं, महाआश्चर्यमाया है, जिसने सुसारको मोह लिया है, आत्मा सर्वदा अनुभवरूप है, अरु अंग-अंग व्यापी है, तिसको नहीं जानते यही आश्चर्य है ॥ हे राजन् ! आत्मा सदा अनुभवरूप है, तिसविषे स्थित होड, अरु संसार आत्माके प्रमादकार कुरणेते .