पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२०

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मेनुइ० आ० सर्वबह्मप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२०१ )
 
निस्पंदकार प्रगट नहीं भासता, तैसे आत्माविषे स्पंद निस्पंद दोशक्ति हैं, जब स्पंदशक्ति आरती है, तब अहंभाव प्रगट होता है, जब अहंभाव हुआ तब चित्त उदय होता है, अहंही चित्त है, जब चित्त हुआ तब आकाशकी भावनाते आकाश बन जाता है, जब स्पर्शकी भावना हुई, तब पवन उत्पन्न होता है, जब रूपकी भावना-करी तब अग्नि बन गई, जब रसकी भावना हुई तब जल उत्पन्न हुआ, इसीप्रकार चित्तकी कृल्पनाकरि तत्त्व उपजे हैं, जब चारों तत्त्वका समष्टि भया, तब एक अंड हुआ, जब दृढ़ संकल्प किया, तब स्वयंभू मनु हुआ, जब अंड फुले तब तीन लोक हुए, स्वर्ग मध्य अरु पाताल, सो तीनों लोक तीनों गुण राजस सात्त्विक तामस हुए, बहुरि पर्वत आदिक दृश्य पदार्थ सर्व हुए ॥ हे राजन् ! केवल संकल्पमात्रही सब हुए हैं, जब स्पंदशक्ति फुरती है, तब इसप्रकार आत्माविषे भासते हैं, परंतु बना कछु नहीं, जैसे समुद्रविषे फेन बद्बुदे फुरते हैं, सो जलरूप हैं, जलते इतर कछुनहीं, तैसे आत्माते इतर कछु वस्तु नहीं, अरु आदिमनु जो स्वयंभू है, तिसने संकल्पकार आगे मन कल्पे हैं, त्रिगुणमय सृष्टि इसप्रकार उत्पन्न होती है, सो केवल संकल्पमात्र है, जबलग चित्त है, तबलग विश्व है, जब चित्त फुरणेते रहित हुआ, तब निस्पंदशक्ति होती है, जब निस्पंद हुई, तब बार जगत् नहीं दिखाई देता ॥ हेराजन् ! यह विश्व मनके ऊरणेविषे है, अरु सत्यकी नाईं स्थित हुआ है, सो श्रवण करु. सत् जो है, सर्व देश सर्व काल सर्व वस्तु पाता है, सो नहीं भासता, अरु जो असत् है, सो सत्यकी नाईं भासता हैं, सब कैसे असत्की नाईं हुआ है, अरु असत कैसे सत्की नाईं हुआ है सो सुन. सत् जो है, सर्व देश, सर्व काल सर्व वस्तु पाता है, सो नहीं भासता अरु असत् जो है परिछिन्नरूप देश काले वस्तु परिच्छेदसंयुक्त है सो सत्की नाईं हुआ है, जहाँ देखिये तहां दृश्यही गुणमय संसार भान होता है, महाआश्चर्यरूप माया है जिसने सत्यको असत्यकी नाईं किया है, अरु असतको सत्की नाईं स्थित किया है, सो चित्तके संबंधकार संसार भासता है आत्माविषे संसार कोऊ नहीं, जब चित्तको स्थित करि देखेगा, तब तेरे ताई संसार न भासैगा, जैसे