पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२२

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परमनिर्वाणवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१२०३ । मिटि जावें, तू आत्मस्वरूप है, अरु निर्गुण है, तुझको गुणोंका स्पर्श नहीं होता, तू सर्वते परे है, जैसे आकाशविषे धूड अरु धुवाँ अरु मेघ बादल विकार भासते हैं, अकाशको लेप कछु नहीं करते, केवल आकाश अद्वैतरूप है, तैसे ज्ञानवान् पुरुष जिसको आत्मज्ञान भया है, तिसको सुख दुःख राजसतामस सात्त्विक गुण लेप नहीं करते, तिनविषे दृष्टि भी आते हैं, लोक दृश्य कार तो भी अपनेविषे नहीं देखते, जैसे समुद्भविषे अनेक तरंग जलरूप होते हैं, जैसे शुद्ध मणिविषे नील पीत आदिक प्रतिबिंब पडते हैं, सो देखनेमात्र हैं, मणिको स्पर्श नहीं करते, तैसे जिस पुरुषके हृदयते वासना मल दूर भई है, तिसके शरीरको सबंधकरिकै राजस सात्त्विक तामस गुणोंके कार्य सुख दुःख देखने मात्र होते हैं, परंतु स्पर्श नहीं करते, केवल सत्तासमान पदका निश्चय तिसविषे होता है अपर रंग उसको स्पर्श नहीं करता, जैसे आकाशको धूडका लेप नहीं होता, तैसे आत्माको गुणोंका संबंध नहीं होता, जो पुरुष ऐसे जानता है, तिसको ज्ञानी कहते हैं, जब निस्पंद होता है, तब आत्मा होता है, जब स्पंद होता है, तब संसारी होता है, जब चित्त ऊरता है तब अनेक सृष्टि भासती हैं, जब चित्त फुरनेते रहित हुआ, तब संसारका अत्यंत अभाव होता है, प्रध्वंसाभाव भी नहीं भासता जो पूर्व सृष्टि थी, अब लीन होगई है, संसार भी केवल आत्मरूप हो जाता है, ताते हे राजन् ! वासनाको त्याग, चित्तको स्थिर करु, यह वासनाही मल है, जब वासनाका त्याग हुआ, तब केवल आकाशकी नाई आपको स्वच्छ जानैगा, सो आत्मा वाणीका विषय नहीं, केवल आत्मस्वमात्र है, अरु अपने आपविषे स्थित हैं, सर्वदा उद्यरूप है, अरु विश्वभी आत्माका चमत्कार हैं, भिन्न वस्तु कछु नहीं, जैसे जलते तरंग भिन्न नहीं, तैसे आत्माते विश्व भिन्न नहीं आत्मरूप है, द्रष्टा दर्शन दृश्य जो त्रिपुटी है, सो अज्ञानकारकै भासती है, आत्मा सर्वदा एकरूप है, अरु त्रिपुटीते रहित है, ऊरणेकारकै आत्माही त्रिपुटीरूप होकार स्थित हुआ है, जैसे स्वप्नविषे एक अनुभवरूप होता है, अरु चेतनताकरिके काल विषमतारूप हो भासता है, सो दूसरी