पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२३

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(१२०४ ) यौगवासिष्ठ । वस्तु कोऊ नहीं, तैसे आत्माही त्रिपुटीरूप भासता है, ताते चित्तको स्थिर करि देख, आत्माते भिन्न कछुवस्तु नहीं, अरु ऊरणेविषे संसार है, जब ऊरणा मिटिगया, तब संसारभी मिटि जाता है, सो ऊरणा कैसे मिटता है, अरु स्वरूपकीप्राप्ति कैसे होती हैं सो श्रवण करु, सप्त भूमिका कहता हौं, जब प्रथम जिज्ञासु होता है, तब चाहता है, जो संतजनका संग करणा, अरु ब्रह्मविद्या शास्त्रको देखना अरु श्रवण करना सो प्रथम भूमिकाहै, भूमिकाकहियेचित्तके ठहरावणेकी ठौर,बहुवारि जब संतों के संग अरु शास्त्रोंकरि बुद्धि बढी,तब संतों अरु शास्त्रोंके कहणेको विचारत भया कि मैं कवन हौं, अरु संसार क्या है,सो यह दूसरी भूमिका है; तिसके उपरांत विचारा कि मैंआत्मा हौं अरु संसारमिथ्याहै,मेरेविषे संसार कोङ नहीं,ऐसी भावना वारंवार करणी सोतीसरी भूमिका है; जब आत्मभावकी दृढताते आत्माका साक्षात्कार हुआ, तब वासना संपूर्ण मिटि जाती हैं, जब स्वरूपते उतारकर देखता है, तब संसार भासता है, परंतु स्वकी नई जानता है, ताते वासना नहीं फुरती, ऐसे जो अवलोकन है, सो चतुर्थ भूमिका है; जब अवलोकन हुआ, तब आनंद प्रगट होता है, ऐसे महाआनंदका प्रगटहोना सो पंचमभूमिका है; अरुजब आनंदप्रगट हुआ अरु तिसविषे स्थितहोना अपने बलतेसुषुप्तवत् इसका नाम पंचम भूमिका है; अरु तुरीयापद छठी भूमिकाहै चित्तके दृढ़ताका नाम तुरीया है, जब तुरीयातीत पदको प्राप्त होता है, तब परमनिर्वाणहोता है, तिसको सप्तम भूमिका कहते हैं; तिस परमनिर्वाणपकी जीवन्मुक्तिको गम नहीं, काहेते कि, तुरीयातीत पद है, तिसको वाणीकार कहि नहीं सकता, प्रथम तीन भूमिका जो कही हैं सो जाग्रत् अवस्था है, तिसविषे श्रवण मनन निदिध्यासन करता है, अरु संसारकी सत्ताभी दूर नहीं होती, इसीते जाग्रत् अवस्था कही है; अरु चतुर्थ भूमिका स्वप्नवत है, संसारकी सत्ता नहीं होती, अरु पंचम भूमिका सुषुप्ति अवस्था है, काहेते जो आनंदघनविषे स्थित होता है, अरु छठी भूमिका तुरीयापद है, जो जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तीनोंका साक्षी है, केवल ब्रह्मही प्रकाशता है, अरु निर्वाणपदविषे चित्तका लय हो जाता है, सो तुरीयापदविषे जीवन्मुक्त