पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२४

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मोक्षरूपवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२०५) विचरते हैं, अरु सप्तम भूमिका तुरीयातीत पद है, सो परमनिर्वाण पद है, तुरीयाविषे ब्रह्माकारवृत्ति रहती है, अरु ब्रह्माकारवृत्तिभी लीन हो जाती है, जहां वाणीकी गम नहीं, तहाँ चित्त नष्ट हो जाता है, केवल आत्मत्वमात्र है, चेतनता मात्र तहाँ अपना अहंभाव होना भी नहीं, शांत अरु परम निर्वाण ऐसा जो निर्वाण है, सो तेरा स्वरूप है, सर्व विश्व वहीरूप है, इतर कछु नहीं, जैसे स्वर्णही भूषण है, अरु स्वर्णविषे भूषण कल्पता है, अरु भूषणभी परिणामकार होता है, आत्मा सदा अच्युतरूप है कदाचित् परिणामको नहीं प्राप्त भया, केवल एकरस हैं, तिसविषे चित्त फुरणेते विश्व कल्पी है, विकारसंयुक्त भासता है, तो भी आत्माते इतर कछु नहीं, केवल अपने आपविषे स्थित है ॥ हेराजन्! ऐसा आत्मा तेरा स्वरूप हैं, तिसविषे स्थित होकर अपने प्रकृत आचारविषे निरहंकार हुआ विचरु, अरु अहंकारके त्यागका अभिमान भी त्यागकर केवल आत्मरूप होरहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे परमनिर्वाणवर्णनं नाम अष्टनवतितमः सर्गः ॥ ९८॥ नवनवतितमः सर्गः ९९. मोक्षरूपवर्णनम् । मनुरुवाच ।। हे राजन् ! सर्व चिदाकाशसत्ता आदि मध्य अंतते रहित अनाभास ज्योंका त्यों स्थित है, अरु आगे भी वही स्थित रहेगा, तिसविषे न ऊध्र्व है, न अध है, न तम हैं, न प्रकाश है, न तिसते इतर है, सर्वकी सत्ता है, सो चिन्मात्र परमसार हैं, सो आपही संकल्पकार चेतनता भया, तब जगत हुआ, अरु क्योंकरि हुआ, क्या रूप है। सो श्रवण कर॥ हे राजन् ! यह विश्व आत्माते भिन्न कछु नहीं आत्मस्वरूपही हैं, जैसे जलविषे तरंग हैं, अरु मिर्चविषे तीक्ष्णता है, खडविषे मधुरता है, अग्निविषे उष्णता है, अरु बर्फविषे शीतलता है, सूर्यविषे प्रकाश है, तैसे आत्माविषे विश्व है, सो आत्मस्वरूप है, जैसे