पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(१२०६)
योगवासिष्ठ।


आकाशविषे शून्यताहैं, जैसे वायुविषे स्पैदहै, तैसे आत्माविषे विश्वहै, सो आत्मस्वरूप है, इतर कछु नहीं ॥ हे राजन् ! जो आत्मस्वरूप हैं। तौ शोक अरु मोह किसका करता हैं, अभिमानते रहित होकर विचरु, जैसे नीतिका प्रवाह आनि प्राप्त होवै तिसविषे विचरु, जैसी काष्ठकी पुतली यंत्रीके तागेकार अनिच्छित चेष्टा करती है, तैसे नीतिरूपी तागेसों अभिमानते रहित होकार विचरु कि, न मैं कछु करता हौं, न करावता हौं, किसीविषे राग द्वेष न करना, जैसे शिला ऊपर मूर्ति लिखी होती है, तिसको न किसीका राग है, न द्वेष है, तैसे शिलाकी मूर्तिकी नाईं विचरु, आत्माते इतर कछु ऊरै नहीं, ऐसा निरहंकार हो, भावै व्यवहारी गृहस्थ होडु, भावे संन्यासी होहु, भावे देहधारी, भावै देहत्यागी होडु, भावै विक्षेपी होहु, भावै ध्यानी होडु, तेरे तांई दुःख कोऊ न होवैगा, ज्योंका त्योंही रहेगा, ऊरणाही संसार है, फ़रणेते रहित असंसार है, जब फ़रता है, तब संसारी होता है, जब ऊरण मिटि जावै, तब केवल आकाशरूप भासता हैं ॥ हे राजन् ! यह जगत् सत्र आत्मरूप है, आत्माही अपने आपविषे स्थित है, जो सर्वात्माही है तौ शोक-अरु मोह किसका कारये ॥ हे राजन् ! आत्मा सर्वदा एकरस है, अरु विश्व आत्माको चमत्कार है, अरु नाना विकारजन्ममरणते आदि जो भासते हैं, सो आत्माके अज्ञानकारिकै भासते हैं, जब आत्माका ज्ञान हुआ, तब आत्मारूपही एकरस विषमता कछु न भासैगी, जैसे जलके न जाननेकार तरंग बुद्बुदेका ज्ञान होता हैं, जब जलको जाना तब तरंग बुलुकी विषमता कछु नहीं, सर्वं जलरूप है, तैसे अत्माके अज्ञानकारि विकार भासते हैं, जब आत्माका ज्ञान हुआ, तब एकरस सर्वात्माही भासता हैं, अरु संवेदनकारकै आकार भासते हैं, संवेदन कहिये अहंकारवासनाका संबंध, अहंकार चित्त दोनों पर्याय हैं ॥ हे राजन् ! अहंकारसाथ इसका होना दुःखदायी है, केवल चिन्मात्रविषे अहंभाव मिथ्या है, जबलग संवेदन दृश्यकी ओर फुरती है, तबलग दृश्यका अंत नहीं आता, अरु नानाप्रकारके विकार भासते हैं, जब संवेदन आत्मा अधिष्ठानकी ओर आता है तब आत्मा शुद्ध