पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२६

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परमार्थोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२०७) अपना आप होकार भासता है, अरु संवेदन भी आत्माका आभास कल्पित है, आभासके आश्रय विश्व कल्पी है- अरु आत्मा ज्योंका त्यों है, औरणेविषे भी अफ़रणेविषे भी, परंतु फुरणेविषे विषमता भासती है, अफुरणेविषे ज्योंका त्यों भासता है, जैसे जेवरीके अज्ञानकार सर्प भासता है, जब जेवरीका ज्ञान भया, तब सर्पकी विषमता जाती रहती है जेवरी ज्योंकी त्यों भासती है, सो सर्प भासनेकालविषे भी जेवरी ज्योंकी त्यों थी, जेवरीविषे कछु' हुआ नहीं, जानने न जाननेविषे एक समान है, तैसे आत्मा भी फुरणेकालविषे जगत् भासताहै, ऊरणेके निवृत्त हुए आत्माही भासता है, आत्मा दोनों कालविषे एक समान है, जैसे सूर्यको किरणें सूर्यते भिन्न नहीं; अरु अग्निते उष्णता भिन्न नहीं तैसे आत्माते विश्व भिन्न नहीं, आत्माही स्वरूप है । हे राजन् ! अहंकारको त्यागिकरि सत्ता समान अपने स्वरूपविषे स्थित होहु, तब तेरे सर्व दुःख निवृत्त हो जावें, एक कवच तेरे ताई कहता हौं, तिसको धारिकार विचरु, यद्यपि अनेक शस्त्रोंकी वर्षा होवै, तो भी छेदको न प्राप्त होवै, सो श्रवण करु, जो कछु देखता सुनता है, सो सर्व ब्रह्म जान वारंवार यही भावना करु, जो ब्रह्मते इतर कछु न भासै, जब ऐसी भावना दृढ करे, तब शस्त्र कोऊ छेद न सकैगा, यह ब्रह्मभावनाही कवच है, जब इसको तू धारैगा, तब सुखी होवैगा ।। वाल्मीकिरुवाच ॥ इस प्रकार वसिष्ठजीनेरामजीको मनु अरु इक्ष्वाकुका संवाद सुनाया,तब सायं काल हुआ, सूर्य अस्त भया, अरु संपूर्ण सभा स्नानको उठी, वसिष्ठजी भी उठे बहुरि सूर्यको किरणों साथ आय प्राप्त भये ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मोक्षरूपवर्णनं नाम नवनवतितमः सर्गः ॥ ९९ ॥ शततमः सर्गः १००, परमार्थोपदेशवर्णनम् । मनुरुवाच ॥ हेगजन् जिसका कारणही मिथ्या है, तौ तिसका कार्य कैसे सत् होवै, यह आभास जो संवेदन है सो विश्वका कारण है, जो आभास मिथ्या है, तो विश्व कैसे सत्य होवै, जो विश्वही असत है तो