पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२९

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(१२१०) । योगवासिष्ठ । कर्मोका नाश कभी नहीं होता, अरु जो तत्त्ववेत्ता ज्ञानवान् पुरुष हैं, सो आपको देह इंद्रियों गुणते रहित जानते हैं, तिनके कर्म संचित अरु क्रियमाण नष्ट हो जाते हैं, संचित् कर्म वृक्षकी नाईं हैं, अरु क्रियमाण फूल फलकी नाईं हैं, जैसे रुईसों लपेटकर अग्निको लगायेते वृक्ष फूल फल सूखे तृणवत् दग्ध होते हैं, तैसे ज्ञानरूपी अग्निकार संचित अरु क्रियमाण कर्म दग्ध हो जाते हैं, ताते हे राजन् ! जो कछु चेष्टाफुरणे वासनाते रहित होकर करैगा, तिसविषे बंधन कोऊ नहीं, जैसे बालकके अंग स्वाभाविक भली बुरी प्रकार हिलते हैं, परंतु उसके हृदयविणे अभिमान फुरता नहीं, ताते उसको बंधन नहीं करता, तैसे तूभी इच्छाते रहित होकार चेष्टा करु, तब तेरे ताई बंधन कोऊ न होवैगा, यद्यपि सब चेष्टा तेरेविषे भासैगी तो भी वासनाते रहित होवैगा, बहुरि अपर जन्म न पावैगा, जैसे भूना बीज देखनेमात्र होता है, अरु उगता नहीं तैसे तेरे विषे सर्व क्रिया दृष्ट आवैगी, परंतु जन्मका कारण न होवैगा, पुण्यकियाका फल सुख न भोगैगा, अरु पाप क्रियाकार दुःख न भोगैगा, तेरे ताई पापपुण्यका स्पर्श न होवैगा, जैसे जलविषे कमल स्थित होता है, अरु जल तिसको स्पर्श नहीं करता, तैसे पापपुण्यका स्पर्श तेरे ताईं न होवैगा, ताते अभिलाषते रहित होकार जो कछु अपना प्रकृत आचार है, सो करु ॥ हे राजन् ! जैसे आकाशविषे जलसाथ पूर्ण मेघ भासतेहैं,परंतु आकाशको लेप नहीं करते, तैसे तुझको कोऊ क्रिया बंधन न करेगी, जैसे जो विषको खानेवाला है, तिसको विषे नहीं मार सकता,तैसे ज्ञानीको क्रिया नहीं बाँधि सकती, ज्ञानवान् क्रिया करनेविषे भी आपको अकर्ता जानता है, अरु अज्ञानी न करणेविष भी अभिमानकर कर्ता होता है, जो देह इंद्रियोंके न करते आपको कर्ता मानता है, अरु जो देह इंद्रियोंकार करता है, तिसके अभिमानते रहित है, सो करणेविषे भी. अकर्ता है, अरु जो पुरुष कर्मते इंद्रियों का संयम कर बैठता है, अरु मनविषे विषयके भोगकी तृष्णा राखता है, अंतःकरण जिसकारागद्वेष कार मूढ है, बड़ी क्रियाको उठावता है, अरु दुःखी होता है, सो मिथ्या चारी है, जो पुरुष मनकार इंद्रियोंके रागद्वेषते रहित है, अरु कर्म इंद्रि