पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३०

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समाधानवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२३३) योंकर चेष्टा करता है, सो विशेष है, अपने जाणेविषे कछु नहीं करता। मोक्षको पाता है ॥ हे राजन् ! अज्ञानरूप वासनाते रहित होकार विचरु. , ऐसे होकार विचरैगा, तब आपको ज्योंका त्यों आत्मा जानैगा, अरु सदा उद्यरूप सर्वका प्रकाशक आपको जानैगा, जन्ममरण बंधमुक्त विकारते रहितज्योंका त्यों आत्मा भासैगा ॥ हे राजन् ! तिसपदको पाय कार शांतिवान् होवैगा, अरु अपर सर्व कला अभ्यास विशेषविना नष्ट होती हैं, जैसे रसविना वृक्ष होता है, यद्यपि फैलाववाला होता है, तो भी उगता नहीं, अरु ज्ञानकला अभ्यासविना नहीं उपजी है, उपजती हुई नाश नहीं होती, जैसे धान बोते हैं अरु दिन दिन प्रति बढनेलगते हैं. तैसे ज्ञानकला प्राप्त हुई दिन दिन प्रति बढती है ॥ हे राजन् ! ज्ञान उपजे हुए ऐसे जानता है कि, मैं न मरता हौं, न जन्मता हौं, निरहंकार निष्किचनरूप हौं, सर्वका प्रकाशक हौं, अजर हौं अमर हौं॥हे राजन् । ऐसी ज्ञानकलाको पायकार मोहको नहीं प्राप्त होता, जैसे दूधते ही हुआ बार दूध नहीं होता, तैसे ज्ञान प्राप्त हुए मोहको नहीं प्राप्त होता, जैसे दूधको मथिकरि घृत काढ़ि लिया, बहुरि नहीं मिलता, तैसे जिसको ज्ञानकला उदय हुए बहुरि मोहका स्पर्श नहीं होता॥हे राजन् ! पुरुष प्रयत्न यही है कि, अपने स्वरूपविषं स्थित होना, अरु अपर उपायका त्याग करना, जिस पुरुषको आत्माकी भावना हुई है, सो संसारसमुद्रके पारको प्राप्त भया है, अरु जिसको संसारकी भावना है सो संसारीजरा मृत्यु दुःखको प्राप्त होता है ।। इतिश्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमार्थोंपदेशवर्णनं नाम शततमः सर्गः ॥ १०० ।। एकाधिकशततमः सर्गः १०१. समाधानवर्णनम् । मनुरुवाच ।। हेराजन्! बड़ा आश्चर्य है, जो शुद्ध आत्मा चिन्मात्रविषे मायाकारकै नानाप्रकारके देह इंद्रियां दृश्य भास आई हैं।हेराजन् । दृश्यका कारण अज्ञान है, जिस आत्माके अज्ञानकार दृश्य भासती है,