पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३३

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( १२१४) यौगवासिष्ठ ।। चेष्टा जिसकी है, तिसको विकार कोऊ दृपृनहीं आताहै, आकाशकी नाईं। | सदा निर्मल भासता है, अरु संपूर्ण विश्व तिसको आत्मस्वरूप भासता है अरु जेती कछु चेष्टा ब्रह्मा विष्णु इंद्रादिक करते हैं, तिसका कर्ता भी आपको जानताहै, तिसको सर्व दुःखका अंत होता हैं, दुःखते रहितआत्मपदको प्राप्त होता है अरु सर्व सुखकी सीमा तिसको प्राप्त होती है । हे राजन् ! जब ऐसे सुखको तू प्राप्त होवैगा, तब तृष्णा तेरे तांई कोऊन रहेगी, जैसे नदी तबलग चलती है, जबलग समुद्रको नहीं प्राप्त भई जब समुद्रको प्राप्त भई, तब चलनेते रहित होती है, तैसे जब तू आत्मपदको प्राप्त होवैगा, तब इच्छा तेरे तांई कोऊ न रहैगी ।। हे राजन् ! तू अहेकारका त्याग कर, अथवा ऐसे जान कि सर्व मैंही हौं, अरु जरा मरण आदिक दुःख तबलग हैं, जबलग आत्मबोध नहीं प्राप्त भया, जब आत्म बोध भया; तब दुःख कोऊ नहीं रहता, अरु दोनोंही दुःखभारी है,जन्म अरु मृत्युसों मिटि जाते हैं । इंद्रके वज्रसमान भी दुःख होवै, तो भी ज्ञानवान्को स्पर्श नहीं करता ॥ हे राजन् ! जैसे बूटा होता है, जब तिसको फल पडता है, तब सूखकर गिरता है, तिसीप्रकार जब ज्ञानरूपी फल प्राप्त होता है; तब मन बुद्धि अहंकार बुटेकी नई गिर पडते हैं, जबलग मनकी चपलता है, तबलग दुःख पाता है, जब मनकी चपलता निवृत्त भई तब क्षोभ कोऊ नहीं रहता, शांतपको प्राप्त होता है, अरु शांति तब होती है, जब प्रकृतिका वियोग होता है, अरु प्रकृतिके संयोगते संसारी होता है, अरु दुःख पाता है, ताते प्रकृति कहिये अहंकार तिसका त्याग करु, अहंकारते रहित होकार चेष्टा करु, जब तू अहंकार रहित हुआ, तब तिसपको प्राप्त होवैगा, जो न जड है, न चेतन है, न शून्य हैं, न अशून्य है, न केवल है, न अकेवल है, न आत्मा कहिये,न अनात्मा कहिये, न एक कहिये, न दो कहिये जेते कछु नाम हैं, सो प्रतियोगीसाथ मिले हुए हैं, प्रतियोगी हुआ सो द्वैत हुआ, अरु अत्मा अद्वैतमात्र है, जिसविषे वाणीकी गम नहीं, जो अवाच्य पद है, तिसको कैसे कहिये, जैती कछु नामसंज्ञा है, सो उपदेशमात्र है, आत्मा अनिवाच्य पद है, ताते संकल्पका त्याग करु, अरु आत्माकीभावनाकरु, जब