पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३४

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मनुइक्ष्वाकुसंवादसमाप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १२१५) आत्मभावना करेगा, तब केवल आत्माही प्रकाशैगा, जैसे फूलका अंग सुगंधते रहित कोऊ नहीं, तैसे आत्माते इतर कछु नहीं ॥ हे राजन् ! जब अहंकारका त्याग करेगा, तबअपनेआपकार शोभायमान होवैगा,आकाशकीनाई निर्मल आत्माविषे स्थित होवैगा,अहंकारको त्यागिकारैतिस - पदुको प्राप्त होवैगा. जहां शास्त्र अरु शास्त्रों के अर्थ नहीं प्राप्त होते अरु संपूर्ण इंद्रियोंके रस तहां लीन हो जाते हैं, अरु सर्व दुःख तहाँ नष्ट हो जाते हैं, केवल मोक्षपदको प्राप्त होवैगा ।हेराजन् ! मोक्ष किसी देशविषे नहीं, जो तहाँ जायकरि पावैगा अरु मोक्ष किसीकालविषे नहीं, जो अमुक काल आवैगा, तब मुक्त होवैगा अरु मोक्ष कोऊ पदार्थ नहीं, जो तिसको ग्रहण करेगा. हे राजन् ! प्रकृत जो हैअहंकार तिसीतेमोक्ष होना है, जब अहंकारका तू त्याग करै तबहीं मोक्ष है, जब इस अनात्म अभिमानको त्यागैगा, तब अपने आपकार शोभायमान होवैगा, जैसे धूम्रते रहित अग्नि प्रकाशमान होता है, तैसे अहंकारते रहित तू प्रकाशैगा, जैसे बड़े पर्वतकेऊपर तालाब निर्मल अरु गंभीर शोभता हैं, तैसे तू शोभैगा ॥ हे राजन् ! तू अपने स्वरूपविषे स्थित हो ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे समाधानवर्णनं नाम एकाधिकशततमः सगैः ॥ १०१ ॥ हुयधिकशततमः सर्गः १०२. मनुइक्ष्वाकुसंवादसमाप्तिवर्णनम् । | मेनुरुवाच ॥ हे राजन् ! तू आत्मारामी होडु, अरु सिद्ध होडु, रागद्वेषते रहित नित्य अंतर्मुख होहु । हे राजन् |जब तू आत्मारामी हुआ तब तेरी व्याकुलता नष्ट हो जावैगी, अरु अंतर शीतल सोम चंद्रमा पूर्णवत हो जावैगा, ऐसा होकर अपने प्रकृत आचारविषे विचरु अरु किसी फलकी वांछा न करु, जो पुरुष वांछाते रहितहोकरि कर्म करता हैं, सो सदा अकर्ता है, अरु महा शोभा पाताहै ॥ हे राजन् ! ऐसी अव: