पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३५

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(१२१६) । योगवासिष्ठ । स्थाविषे स्थित होकार भोजन आवे, तिसका भक्षण करु, अरु जो अनिच्छित वस्त्र आवै तिसको पहिरु, जहां नींद आवै तहां शयन करु,अरु रागद्वेषते रहित हो, जब तू ऐसा होवैगा, तब तू शास्त्र अरु शास्त्रीके अर्थते उल्लधित वतैगा, जो ऐसा पुरुष है, सो परमरसको पायकार मतवाला होता है, तिसको संसारकी इच्छा कछु नहीं रहती ॥ हे राजन् ! ज्ञानवान् काशीविषे देह त्यागै, अथवा चंडालके गृहविषे जहाँ त्यागै - तहाँ मुक्ति है, वह सदा आत्मस्वरूपविषे स्थितहै, अरु वर्तमान कालविषे देहको नहीं त्यागता. काहेते कि, जिस कालविषे उसको ज्ञान हुआ हैं, तिसी कालविषे देहका अभाव भया है, ज्ञानकारि देह दुग्ध हो जाता है ॥ हे राजन् ! ज्ञानवान् सदा मुक्तिरूप है, न किसीकी स्तुति करताहै, न निंदा करता है,. काहेते कि, चित्तकी कलना तिसकी मिटिगई है, यद्यपि रागद्वेष ज्ञानवानविषे दृष्ट भी आता है, अरु हँसता रोता भी इष्ट आता है, परंतु अंतःकरण अपने जाननेकार न राग है, न देप है, न हँसता है, न रोता है, ज्योंका त्यों है, जैसे आकाश शून्यरूप हैं,अरु मेघ बादलभी दृष्ट आते हैं, परंतु आकाशको लेप नहीं करते, तैसे ज्ञा जेई क्रिया बंधन नहीं करती, अज्ञानी जानते हैं कि, ज्ञानवान् क्रिया करता है । हेराजन् ! ज्ञानवान् सर्वदा नमस्कार करनेको योग्य है, अरु पूजने योग्य है, जिस स्थान ज्ञानवान बैठता है, तिस स्थानको भी नमस्कार है, जिससाथ बोलता है, तिसको भी नमस्कार है, जिस ऊपर ज्ञानवान् दृष्टि करता है, तिसकोभी नमस्कार है, सो सबका आश्रयभूत है । हे राजन् ! जैसा ज्ञानवान्की दृष्टिते आनंद मिलता है, सो तपकरके नहीं मिलता, दानकार नहीं मिलता, अरु यज्ञ कमोकार भी नहीं मिलता ऐसी दृष्टि किसीकार नहीं पाती, जैसी संतकी दृष्टि है, ऐसे आनंदको पाता है, जिस पदको वाणीकी गम नहीं. अरु जो पुरुष संतकी दृष्टिको पायकार कैसा होता हैं; जिसते लोक दुःख नहीं पाते अरु लोकते वह दुःख नहीं पाता न किसीका भय करताहै, न किसीका हर्षे करता है । हे राजन् ! सिद्धि पानेका सुख अल्प है, क्या है, जो उडनेकी सिद्धि पाई तौ पक्षी अनेक उडते फिरते हैं, इसकार आत्मज्ञान कार कैसा हवाणीकी गमन संतकी दृष्टि है। र लोकते वह