पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३७

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( १२१८) यौगवासिष्ठ । शाँतरूप हैं, अरु रागद्वेषते रहित हैं, अरु अपूर्व अतिशयको पाता हैं, जेता कछु अपर अतिशय है, सो पूर्व अतिशय है, अरु ज्ञानवान् अपूर्व अतिशयको पाता है, सो ज्ञानीते अन्य को नहीं पाता, आत्मज्ञानको ज्ञानीही पाताहैं, सो ज्ञान एकही है । हे रामजी ! जो दूसरा नहीं पाता तौ अपूर्व क्यों अतिशय हुआ ।। हे रामजी ! अपूर्व अतिशयको पायकार ज्ञानवान् प्रकृतआचार सर्व चेष्टा भी करता है, तो भी निश्चय सर्वदा आत्माविषे रखता है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! ज्ञानवान ऐसा जो सर्व चेष्टा करता है, अज्ञानीकी नाईं तो उसको किन लक्षणोंकरि तत्त्ववेत्ता जानिये ॥ वसिष्ठे उवाच ।। हे रामजी। एक स्वसंवेद लक्षण है, अरु एक परसंवेद लक्षण है, स्वसंवेद् कहिये जो आपही आपको जानता है, अपर नहीं जानता, परसैवेद कृहिये जिसको अपर भी जानते हैं । हे रामजी ! परसंवेदलक्षण है सो मैं कहौं हौं, जो तप दान यज्ञ व्रत करने सो परसंवेद है, अरु दुःखसुखकी प्राप्तिविधे धैर्यकारि रहना सो समान साधुके लक्षण हैं, अरु महाकर्ता, महाभोक्ता, महात्यागी, क्षमा, दया यह लक्षण साचुके हैं, ज्ञानवान्के नहीं, अरु जती कछु अणिमाते आदि भिद्धि हैं, उड़ना, छुपि जावना यह भी समान लक्षण हैं, परंतु यह स्वाभाविक तिसविषे आनि ऊरते हैं, सो अपरकार भी जाने जाते हैं, अरु जो ज्ञानीके लक्षण हैं सो स्वसंवेद्य हैं, अगर को इसते इतर उसके शिरविषे सिंग नहीं जो तिसकरि जानिये, जैसे अपर व्यवहार हैं, तैसे सिद्धि ज्ञानीको समान है, यह भी ज्ञानवान्का लक्षण नहीं । अरु धुण्यपापादिक क्रिया परसंवेद हैं, सो मायाके कल्पे हैं, ज्ञानीके नहीं, जेते कछु लक्षण देखनेविषे आदेंगे, सो मिथ्या हैं, मायाके कल्पे । हैं, अरु स्वसंवेद्य, ज्ञानीका लक्षण जो सर्वदा आत्माविषे स्थित है, अरु । अपने आपकार संतुष्ट है, न किसीका हर्ष है, न शोक है, अरु देहके जीवित मृत्युविपे समान है, अरु काम क्रोध लोभ मोह सर्वको जानताहै, इसका लक्षण इंद्रियों का विषय नहीं. हेते कि, निर्वाच्यपदको साप्त भया है । हे रामजी । जिसको ज्ञान प्राप्त हुआ है, तिसका चित्त स्वाभाविक