पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३९

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(१२२० ) योगवासिष्ठ । सत्यता थी ताते सत्यका नाश कदाचित नहीं होता, असं असत्येका सद्भाव कदाचित् नहीं होता । हे रामजी ! सत्यु जो है ब्रह्म तिसकी भावना कर, जो ब्रह्मकी भावना करता है सो ब्रह्मही होता है, जैसे घृतविषे घृत एक हो जाता है, अरु दूधविषे दूध मिलत, जलविषे जल मिलि जाता है, तैसे थइ जीव भावना कारकै चिद्धन ब्रह्मसाथ एक होजाता है, जीवसंज्ञा इसकी निवृत्त हो जाती है, जैसे अमृतके पान कियेते असर होता है, तैसे ब्रह्मकी भावना करणेते ब्रह्म होता है, अरु जो अनास्माकी भावना करता है तौ पराधीन होकारै दुःख पाता है, जैसे विषके पान कियेते अवश्य मरता है, जैसे अनात्माकी भावनाते अवश्य दुःख पाता हैं, तिसका नाश होता है, ताते आत्मभाव करु ॥ हे रामजी ! जो वस्तु संकल्पकारि उदय होती है, तिसका रहना भी थोड़ा काल होता है, जो चल वस्तु है सो अवश्य नाश होती है, यह दृश्य आत्माविषे भ्रमकारकै सिद्ध है, जैसे भृगतृष्णाका जल अरु सीपीविषे रूपा भ्रमकारकै सिद्ध हैं, अरु आकाशविषे दूसरा चंद्रमा भ्रमकार सिद्ध है, वास्तव नहीं, तैसे अहंकार देह इंद्रियोंकरि सुख असता है, सो सब मिथ्या है, ताते दृश्यकी भावना त्यागिकार अपने अनुभव स्वरूपविषे स्थित हो, जब आत्माविषे स्थित होवैगा, तब मोहको प्राप्त न होवैगा, जैसे पारसके स्पर्शकार तांबा स्वर्ण हुआ बहुवारि तांबा नहीं होता, तैसे तू जब आत्मपदको जानेगा, तब बहुरि सोहको प्राप्त न होवैगा कि, मैं हौं, यह मेरा हैं, अहं त्वं भाव तेरा निवृत्त हो जावैगा, यह भावना न रहेगी । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! मच्छर अरु हुँआदिक जो प्रस्खेदुते उत्पन्न होते हैं, सो सब कर्म करिकै उत्पन्न होते हैं, देवता मनुष्यादिक जो उत्पन्न होते हैं, सो कमौकार यह सब उत्पन्न होते हैं, अथवा कमविना भी अछु होते है ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! आदि पर आत्माते जब उत्पत्ति भई है, सो चार प्रकारके जीव हैं, एक कमकारउत्पन्न हुए हैं, एक कविना हुए हैं एक आगे होने हैं, एक अब भी उत्पन्न होते हैं, ।। राम उवाच ॥ हे संशयरूपी हृदयके अंधकार निवृत्त करयोहारे सूर्य ! अरू संशयरूपी बादलोंके निवृत्तिको पवन ! कृपाक