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अविद्याचिकित्सावर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

चित्तकी उपाधिते रहित चिन्मात्र है, सो शरीरके नाश हुए नाश नहीं होता, अरु शरीरके उपजेते नहीं उपजता; शरीरके उपजने अरु विनशनेविषे सदा एकरस ज्योंका त्यों स्थित है, जैसे घटके उपजने अरु विनशनेविषे घटाकाश ज्योंका त्यों होता है, तैसे शरीरके भावअभावविषे आत्मा ज्योंका त्यों है, जैसे बालक दौड़ता है, तिसको सूर्य भी दौड़ता भासता है, अरु स्थित होनेविषे स्थित भासता है. परंतु सूर्य ज्योंका त्यों है, तैसे चित्तकी चंचलता करिकै मूर्ख आत्माको व्याकुल देखते हैं, अरु चित्तके अचलताविषे अचल देखते हैं, अरू चित्तके उपजनेविषे उपजता देखते हैं, परंतु आत्मा सदाज्योंका त्यों है, जैसे बबोहा अपनी तंतुकरि आपही वेष्टित होता है, निकस नहीं सकता, तैसे यह जीव अपनी वासनाकरि आपही बंधमान होते हैं॥ राम उवाच॥ हे भगवन्! अत्यंत मूर्खताको प्राप्त होकरि जो स्थावर आदिक तनुको पाइकरि घन स्थित हुए हैं, तिनकी वासना कैसे होती है, सो कृपा करिकै कहौ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! जो स्थावर जीव हैं, सो अमन सत्ताको नहीं प्राप्त हुए, अरु केवल मन अवस्थाविषे भी तिष्ठते नहीं मध्य अवस्थाविषे हैं, उनकी पुर्यष्टका सुषुप्तिरूप है, सो केवल दुःखका कारण है, उनका मन नहीं नष्ट हुआ, सुषुप्ति अवस्थाविषे जड़रूप स्थित है, सो कालकरि जागहिंगे, अब उनकी सत्ता मूक जड होकरि स्थित है, सत्तामात्र स्थित है॥ राम उवाच॥ हे देव देवताविषे श्रेष्ठ। जब उनकी सत्ता अद्वैतरूप होकरि स्थावरविषे स्थित है, तब मुक्ति अवस्था तिनके निकट भई, यह सिद्ध हुआ॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! मुक्ति कैसे निकट होती है, मुक्ति तब होती है, जब बुद्धिपूर्वक वस्तुको विचारै है, तब यथाभूत अर्थ दृष्टि आवै, जब सत्तासमानका बोध होवै, तब केवल आत्मपदको प्राप्त होवै॥ हे रामजी! जब ज्योंका त्यों पदार्थ जानिकरि वासनाका त्याग करै, सो उत्तम है, तब सत्तासमान पद प्राप्त होवै, प्रथम अध्यात्मशास्त्रको विचारै तिसविषे जो सार है, तिसकी वारंवार भावना करै, तिसकरि जो प्राप्त होवै, सो सत्तासमान परब्रह्मा कहाता है, स्थावरके अंतर वासना है, परंतु ब्रह्मदृष्टि नहीं आती, काहेते