पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३४१

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(१२२३ ) योगवासिष्ठ | काल उपजे हैं तो भी, वह पाछे कारणभावको प्राप्त हुए हैं, कर्मके वशते ॥ हे रामजी 1 जो आदि ऊरणा हुआ है, अरु स्वरूपविधे जिनका दृढ़ निश्चय रहा, तिनकी संज्ञा पुण्य है, अरु जो स्वरूपको विस्मरण कर अधिभुतकविषे निश्चय करत भये, तिनकी धन संज्ञा है । हे रामजी ! युण्यते धन होना सुगम है अरु धनमें पुण्य होना कठिन है, कोऊ ' भाग्यवान् पुरुष होता है, जो यत्न कारकै धनते पुण्यवान होता है, जैसे पर्वतते पत्थर गिरना सुगम है, तैसे पुण्यते धन होना सुगम है, अरु जैसे पत्थरको पर्वतपर चढावना कठिन है, तैसे धनते पुण्य होना कठिन है, कई चिरकाल धनविषे वहते हैं, कई यत्रकारि शीघ्रही घुण्यवान होते हैं. हे रामजी ! जो सदा अंतवाहक रहतेहैं, तिनको संज्ञा ईश्वर है, अरु अंतवाहकको त्यागिकार अधिभूतक होते हैं, सो जीव कहातेहैं, अरु परतंत्र हैं, जैसे कर्म करते हैं, तैसे आगे शरीर धारते हैं, अरु जो धनते पुण्य होते हैं, सो ज्ञानवान् हैं, तिनको बहुर जन्म नहीं होता अब भी जो उत्पन्न होते हैं, सो प्रथम कर्मविना होते हैं; जब अपने स्वरूपते गिरते हैं, तबू जैसा संकल्प करते हैं, संकल्पही कर्म है, तैसे आगे शरीर धारते हैं । हे रामजी ! यह विश्व संकल्पमात्र है, ताते संकल्पका त्याग करौ, इस दृश्यकी आस्था न करु ॥ हे। रामजी ! खाना पीना चेष्टा करौ, परंतु तिसविषे अहंभाव न होवे, अहंकार अज्ञानकारि सिद्ध हुआ है, सो दृश्य मिथ्या है, अहंभावके होनेकार दुःखी होता है, तोते अहंकारते रहित चेष्टाकरौ ॥ हे रामजी । बंधअरु मोक्षका लक्षण श्रवण करु, ग्राह्य ग्राहक जो है, विषय अरु इंद्रियोंका संयोग, तिनके इष्टविषे राग करना, अनिष्टविषे द्वेष करना, यही बंधन है, जैसे जालविषे पक्षी बंधायमान होता हैं, अरु ग्राह्य ग्राहक इंद्रियां अरु विषयका संबंध तिनके इष्ट अनिष्ट होना है, जिसविषे इंद्रियोंका संयोग होता है, तिसविषे समबुद्धि रहै, इनके धर्म अपनेविषे न देखे, इनके जाननेवाला जो अनुभवरूप आत्मा है, तिसीविषे साक्षीरूप होकार स्थित रहै, इसप्रकार जो इनका ग्रहण करताहै सो सदा मुक्तरूपहै, इसते इतर है सो मूर्ख जीव बंधहै, तुम इस श्राह्यग्राहक संबंधविषे सावधानरहौ, इनका संबंध धन है, इनते रहित होना मुक्त है, अरु राग द्वेष करनेवाला