पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३४३

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(१२२४) योगवासिष्ठ । कछु स्थावर जंगम पदार्थ हैं, सो प्रथम कमविना उत्पन्न हुए हैं, अरु पाछे जब स्वरूपते गिरे अरु धनपदको प्राप्त हुए तब शरीर कमकार होते हैं, अरु कर्मोंका बीज अहंकार है, अहंकारविषे शरीर है, जैसे बीजविषे वृक्ष होता हैं, समय पायकार फूल फल प्रगट होते हैं, तैसे अहंकारते शरीर गट होते हैं, जब अहंकार नष्ट हुआ, तब शरीर कोऊ नहीं, केवल आत्मपद है, अहंकार है नहीं, अरु प्रत्यक्ष दिखाई देता है, अरु , आत्मा अच्युत है, गिरेकी नाई भासता है, निरालंब है, अरु आलंबकी नाईं दृष्ट आता है, आत्मा निराकार है, अरु आकारसहित भासता हैं, निराभास है, अरु आभाससहित दिखाई देता है, ताते केवल चिन्मात्र आत्माविषे स्थित हो, यह सब चिन्मात्रहीरूप है । हे रामजी ! जब ऐसी भावना होती है, तब चित्त अचित्त हो जाता है, जब चित्त अचित्त हुआ, तब जगत्कलना मिटि जाती हैं, केवल आत्मतत्त्वही भासता है। इति श्रीयोवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे कमकर्मविचारवर्णनं नाम शताधिकचतुर्थः सर्गः ॥ १०४ ॥ शताधिकपंचमः सर्गः १०५. 2 तुरीयापदविचारवर्णनम् । • बसिछु उवाच ॥ हे रामजी ! इस जीवके तीन स्वरूप हैं एक स्वरूप छात्मा है, चिदानंद ब्रह्म, जिसकार सर्व प्रकाशते हैं, अरु दूसरा अंतवाहक शुण्यनाम है, आत्माके मादकारकै हुआ है, जो मात्रपदते उत्थान हुआ है, तौ भी अमाद नहीं, जो आत्माको स्मरण रहा है, जब आत्माका भूला, तब तीसरा अधिभूतक हुआ, पंचतत्त्वको अपना आप जानने लगा है। हे रामजी ! यह तीन स्वरूप जीवके हैं, आत्माके प्रमाकरि जीवसंज्ञा पाता है, अरु दुःखी होता है, अरु परतंत्र हुआ है, ताते पंचभूतक अरु अंतवाहकको त्यागकर वास्तव स्वरूपविषे स्थित होछु । हे रामजी! यह जो दो शरीर हैं, स्थूल अरु सूक्ष्म सो विचार करे -