पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३४५

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(१२२६ ) योगवासिष्ठ । अवस्थाका साक्षी है, न उसके राग है, न द्वेष है, उदासीनकी नई है, अरु तुरीयातीत पदको वाणीकी गम नहीं, जीवन्मुक्त पुरुष जब विदेहमुक्त होता हैं, तब उसी पदको प्राप्त होता है, जहां वाणीकी गम नहीं, जबलग जीवन्मुक्त है तबलग तुरीयापदविषे स्थित होता है, अरु रागद्वेषते रहित होता है, इंद्रियां भी अपने विषयविषे स्वाभाविक वतेती हैं, परंतु रागद्वेषते रहित होकर अरु जिस पुरुषको रागद्वेष उत्पन्न होते हैं, सो तुरीयापदको नहीं प्राप्त भया, अरु चित्तसहित हैं, अरु जिस पुरुषको रागद्वेष उत्पन्न नहीं होते, तिसका चित्त सत्पदको प्राप्त भया है, जिसका चित्त सत्पदको प्राप्त हुआ है, तिसको संसारको सत्यता नहीं भासती, स्वप्नवत् जगत्को देखता है, ताते तू सत्पदविषे स्थित होकार साक्षीरूप हो रहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे तुरीयापदविचारवर्णनं नाम शताधिकपंचमः सर्गः ॥ १०३ ॥ शताधिकषष्ठः सर्गः १०६. काष्ठमौनिवृत्तान्तवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! कर्ता कारण कर्म यह तीनों पडे होवें, तु इनका साक्षी होडु, इनका कर्तृत्व अभिमान तेरे ताई मत होवै कि, मैं यह कर्ता हौं, अथवा इसका मैं त्याग किया है,यहअभिमान भी नहीं करना, तू उदासीनकी नई हो रहु, अरु इसीप्रकार एक आख्यान कहता हौं, सो श्रवण कर, तू आगे भी प्रबुद्ध हैं, तो भी दृढ बोधके निमित्त सुन ॥ हे रामजी ! एक वनविषे काष्ठमौनि था, अरु एक वधिक मृगको बाण चलाता हुआ मृगके पीछे दौडता जाता था, अरु आगे गये तो मृग वधिककी दृष्टिते अगोचर हो गया, वधिकने देखा कि, एक तपस्वी बैठा है, तिसीते पूछत भया ॥ हे मुनीश्वर । इहाँ एक मृग अआया था सो किस ओरको गया, तुमने देखा हो तौ मेरे ताई कहौ ॥ काष्ठमौनिरुवाच ॥ हे वधिक ! हमारे तांई सुधि कछु नहीं, काहेते कि, हम निरहंकार हैं, हमारे साथ चित्त अहंकार