पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३४६

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काष्ठमौनिवृत्तान्तवर्णन-निर्वाणशकरण ६. (१२२७ ) दोनों नहीं, ताते निरहंकार हैं,, अरु जो तू कहैं इंद्रियोंकी चेष्टा कैसे होती है तौ सुन, जैसे सूर्यके आश्रय लोककी चेष्टा होती है; अरु दीपक मणिके आश्रय चेष्टा होती है अरु सूर्य दीपक मणि अकाशकेसाक्षीभूत हैं, तैसे हम इंद्रियोंके साक्षीभूत इनकी चेष्टा स्वाभाविक होती है, हमारे तौ इनसाथ प्रयोजन कछु नहीं ॥ हे वधिक! अहंभाव करणेवाला अहंकार होता है, जैसे तागेके आश्रय मणके होते हैं, सो मणके भिन्न भिन्न होते हैं, अरु तागा सर्वविषे एक होता है, तब माला होती हैं, जब तागा दूटि पडे तब मणके भिन्न भिन्न हो जाते हैं, तैसे इंद्रियांरूपी मणके हैं, अरु अहंकाररूपी तागा है, तिस अहंकाररूपी तागेके टूटनेसों इंद्रियां भिन्न भिन्न हो गई हैं, जैसे राजाके नाश हुए सैन भिन्न भिन्न हो जाती हैं, जैसे गोपालके नष्ट हुए गौओं भिन्न भिन्न हो जाती हैं, अरु जैसे पिताके नष्ट हुए बालक व्याकुल होजाते हैं, तैसे अहंकारविना इंद्रियाँ व्याकुल होती हैं। इनका अभिमान मेरे ताई कछु नहीं, इनका अभिमानी अहंकार था, सो मेरा नष्ट हो गया है, इंद्रियां अपने अपने विषयविषे विचरती हैं, मुझको इनका न' राग है न द्वेष है ॥ हे साधो ! मेरे तांई न जाग्रत् भासता हैं, न स्वप्न, न सुषुप्ति, इन तीनोंते रहित हम तुरीयापदविषे स्थित हैं, जिसविषे अहं त्वका अभाव है; जो अहं त्वं हमारा मिटि गया तौ हम साक्षी किसकी देवें कि, मृग बाँये गया कै दाहिने गया, जो नेत्र इंद्रियां देखेनेवाली हैं, तिनको बोलनेकी शक्ति नहीं, यह अपने अपने विषयको ग्रहण करती हैं; एक इंद्रियको दूसरेकी शक्ति नहीं, बहुरि तेरेताई कौन कहै, इन सबका धारणेवाला अहंकार था, जो सबको अपना आप जानता था, मैं देखता हौं, मैं बोलता हौं, सो अहंकार हमारा नष्ट हो गया हैं, जैसे शरत्कालविषे मेघ नष्ट होते हैं, तैसे अहंकारके नष्ट होनेकार हम स्वच्छ निर्मल शाँत तुरीयापदविषे स्थित हैं, अरु इंद्रियोंका जीव अहंकार मृतक हो गया है, अरु इंद्रियां भी मृतक हो गई हैं, देखनेमात्र दृष्टिआती हैं, जैसे भीतके ऊपर पुतलियाँ लिखी होवें, अरु कार्य तिनके कछु न होवें, तैसे हमारी इंद्रियोंते कार्य कछु नहीं होता