पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३४७

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(१२२८)। योगवासिष्ठ । तौ तेरे ताई कौन कहै ? ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामचंद्र ! जब इसप्रकार मुनीश्वरने कहा, तब वधिक समुझिकार अपनी इच्छाचारी उठिगया ॥ हे रामजी ! तुरीयापद शांतरूप है, जहां जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति तीनोंका अभाव है, केवल अद्वैत पद है, यह जो संज्ञा है, ब्रह्म आत्मा चिदानंदते आदि लेकर सो तुरीयापदविषेर्दै,अरु तुरीयातीत पदविषे शब्दकी गम नहीं, अशब्दपद है, विदेहमुक्त पुरुष तिसी पदको प्राप्त होता है, अरु जीवन्मुक्त तुरीयापदको साक्षात् करिकै तुरीयावस्थाविषे विचरते हैं, जहां जाग्रत् जो दीर्घ दुःख सुखका भान है सो नहीं, अरु स्वम जो रागद्वेषको लिये अल्पकाल है, सो भी नहीं, अरु जडता तामस अवस्था भी नहीं, इन तीनोंते रहित है, सो तुरीयापद है, अरु शति जिसविपक्षोभ कोऊ नहीं, अरु यह जगत् तिसका आभास है, जैसे समुद्रविष तरंग वास्तव कछु नहीं, जलही है, तैसे केवल तुरीयास्वरूप सत्ता समान तेरास्वरूप है, तिसविधे स्थित होहु, अरु तिसविर्षे जो स्थित हुए हैं, सो श्रवण करु; ब्रह्मा विष्णु रुद्र सिद्ध ज्ञानी इत्यादिक जो ज्ञानवान हैं, सो तिसी पदविषे स्थितहैं, अरु काष्ठमौनिवधिकको उपदेश करनेवाला भी तुरीयापदविषे स्थितहै, विशेष कलना तिसकीनिवृत्त हुई थी, जो भिन्न भिन्न नामरूपको देखेनेवाली केवल सत्ता समानविषे स्थित था, ताते.कलनाको त्यागिकारे तुम भी तुरीयापदविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणिप्रकरणे काष्ठमोनिवृत्तांतवर्णनं नाम शताधिकषष्ठः सर्गः ॥ १०६॥ शताधिकसप्तमः सर्गः १०७, अविद्यानाशरूपवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! यह विश्व केवल आकाशरूप हैं, आत्माते इतर कछु नहीं, आत्माका चमत्कार है, जैसे मेघविषे बिजलीका चमत्कार होता है, तैसे यह विश्वरूप चित्तकला आत्माका चमत्कार है ॥ हे रामजी । वास्तव ब्रह्मही है, इतर कछुनहीं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् !