पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५०

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अवियानाशरूपवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२३१ ) विषे अत्यंत अभाव है, जेती कछु शुद्धा आदिक संज्ञा कहते हैं, सो भी फुरणेविषे हैं, आत्मा निर्वाच्य पद है, सो शेष रहताहै, तीसरी संज्ञा शास्त्रकारों ने कही हैं, सो श्रवण करु; एक शून्यवादी उसीको शून्य कहते हैं, विज्ञानवादी विज्ञानरूप कहते हैं, कई उपासनावान् उसीको ईश्वर कहते हैं, कई कहते हैं, आत्मा सर्वका कारण है, वही शेष रहता है, अरु एक आत्माको सर्वशक्ति कहते हैं, अरु एक कहते हैं, आत्मा निःशक्त है, साक्षी आत्मा को अरु शक्तिको भिन्न मानते हैं । हे रामजी ! जेते वाद हैं, सो सर्वही कलनाकार हुए हैं, कलनाको मानिकर वाद उठावते हैं, वास्तव वाद कोऊ नहीं, आत्मा निर्वाच्य पद है, अरु मेरा जो सिद्धांत हैं, सो भी श्रवण करु, जेती कछु कलना है तिसते आत्मा अतीत है, जैसे पवन स्पंदशक्तिकार फुरताहै, निस्पंदकार ठहर जाता है, जो स्पद भी पवन हैं, निस्पंद भी पवन है, इतर कछु नहीं, तैसे आत्मा फुरती है, आत्माते इतर कछु नहीं, अरु जो इतर प्रतीत होती है, तिसको मिथ्या जानि त्याग, अपने निर्विकार स्वरूपविषे स्थित होडु, जब तू आत्मस्वरूपविषे स्थित होवैगा,तब जेते कछु शास्त्रोंके भिन्न भिन्न मतवाद हैं, सो कोई न रहैगा केवल अपना आप स्वच्छ आही भासैगा हेरामजी तिस निर्विकल्प पदको पायकार शांतिवान् हुए हैं, अरु असत्की नई स्थितभएहैं, जो द्वैतकलना तिनकी कछु नहीं फुरती॥ हे रामजी! आत्मा ब्रह्म आदिक शब्द भी उपदेशनिमित्त कहे हैं, आत्मा शब्दते अतीत है, अरु सर्व जगत भी आत्मस्वरूप है, अरु संसाररूप विकार आत्माविषे असम्यक्रदर्शनकारि भासते हैं, जैसे शून्य आकाशविषे तरुवरे मोतीवत् भासते हैं, सो अविदित हैं, तैसे आत्माविषे जगत् द्वैत अविदित भासता हैं, ताते जगत् द्वैतकी भावना त्यागिकार निर्विकल्प आत्मस्वरूपविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अविद्यानाशरूप: वर्णनं नाम शताधिकसप्तमः सर्गः ॥ १०७ ॥ मिथ्या जानि त्य हावैगा,तबजेते कछ ही भासैगा हेरान

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