पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५१

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-- - ( १२३२) योगवासिष्ठ । शताधिकाष्टमः सर्गः १०८, जीवत्वाभावप्रतिपादनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् । देह इंद्रियां अरु कलनाविषे सार वस्तु क्या है, सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! जो कछु यह जगत् दृश्य है, अहत्वते लेकर सो सब चिन्मात्र है, जैसे समुद्र जलही मात्र है, तैसे जगत् मनसहित षटू इंद्रियोंकार, जो कछु दृश्य भासते हैं सो भ्रममात्र हैं । हे रामजी ! देह इंद्रियां सब मिथ्या हैं, आत्माविषे को नहीं, चित्तके कल्पे हुए हैं, अरु चित्तही इनको देखता है, जैसे मरुस्थलविषे मृगको जलबुद्धि होती है, देखिकार जलके निमित्त दौडता है, अरु दुःख पाता है, तैसे चित्तरूपी मृग आत्मारूपी मरुस्थलविषे देह इंद्रियां विषयरूप जल कल्पिकार दौड़ता है, अरु दुःख पावता है, सो देह इंद्रियांविषे श्रमकारकै भासते हैं, जैसे मूर्ख बालक परछाईंविषे वैताल कल्पता है, जैसे चित्तने देह इंद्रियादिक कल्पना करी है । हे रामजी ! आत्मा शुद्ध निर्विकार हैं, तिसविषे चित्तने भ्रमकारकै विकार आरोपण किये हैं, जैसे भ्रांतदृष्टि कारकै आकाशविषे दो चंद्रमा भासते हैं, जैसे चित्तने देह इंद्रियाँ कपी हैं, अरु चित्त भी आपते कछु नहीं आत्माकी सत्तालेकार चेष्टा करता है, जैसे चुंबककी सत्ता लेकर लोहा चेष्टा करता है, तैसे निर्विकार आत्माकी सत्ता लेकर चित्त नानाकारके विकार करुपता है, ताते चित्तका त्याग कर, जो विकारजाल तेरा मिटि जावे ॥ हे रामजी ! देह इंद्वियोंविषे सार क्या है सो सुन; जेता कछु संसार है, तिसविषे सार देह है, जो सब देहके संबंधी हैं, जब देह मिटि जावै, तब संबंधी भी नहीं रहते, अरु देहविषे सार इंद्रियां हैं,अरु इंद्रियोंविषे सार प्राण हैं, प्राणविषे सार मन है, अरु मनका सार बुद्धि है, बुद्धिका सार अहंकार है, अरु अहंकारका सार जीव है, जीवका सार चिदावली है, चिदावली कहिये वासना संयुक्त चेतना, जिसकारि इसका संबंध है, अरु चिदावलीका सार चित्तते रहित शुद्ध चेतन है, जिसविषे सर्व विकल्पकी लय है, शुद्ध अरु निर्मल है, चिन्मात्र ब्रह्म आत्मा है, जिसविषे उत्थान को नहीं ॥ है रामजी ।