पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५३

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(१२३४) योगवासिष्ठ । स्थित हुआ है, जैसे संकल्प अरु संकल्पकत भिन्न नहीं, जैसे आकाशही मोतीकी माला होकार भासता है, तैसे आत्माही दृश्यरूप होकरि । भासता है; जैसे बीजही वृक्ष फूल फल होता है, तैसेअत्मिाही दृश्यरूप होकर स्थित हुआ है, जैसे जलके तरंग जलही हैं, जैसे विश्व आत्माही है। ॥ हेरामजी! चिदावली भी आत्माही हैं, जीव भी आत्माही है, अहंकार, बुद्धि, प्राण इंद्रियां, देह, विश्व, आकाश, काल, दिशा पदार्थ सर्व आत्माही हैं, आत्माते इतर कछु नहीं, ताले विश्वको अपनास्वरूप जान, जैसे सूर्यका प्रकाश सूर्यही हैं, जैसे तू जान, सर्व मैं हौं, जो ऐसे न जान सकै तौ ऐसे जान, कि देह भी जड हैं, इंद्रियोंकार पालित है सो मैं नहीं, अरु इंद्रियां भी मैं नहीं, जो प्राण इंद्रियोंका सार है, जो प्राण न होवै तौ इंद्रियां किसी कामकी नहीं, अरु प्राण भी मैं नहीं, प्राणका सार मन है, जो मन मूच्छा होता है, प्राण आते जाते भी हैं तो भी किसी कामके नहीं, अरु मन भी मैं नहीं, जो मनके प्रेरणेवाली बुद्धि हैं, जो निश्चय बुद्धि करती है, मन भी तहां जाताहै सो भी मैं नहीं, जो बुद्रिका प्रेरक अहंकार है। सो अहंकार भी मैं नहीं, अहंकारका सार जीव है, जीवविना अहंकार । किसी कामका नहीं, अरु जीव भी मैं नहीं, जीवका सार चिदावली है, चिदावली कहियेशुद्धचिविषे चैतन्योन्मुखत्व होना, जीव संज्ञाते प्रथम ईश्वरभाव चिदावली भी मैं नहीं, जो चिदावलीका सार चिन्मात्र है, सो अद्वितीय निर्विकल्प स्वरूप है, यह सर्व अनात्म भ्रमकार सिद्ध हुए हैं, मैं केवल शांत रूप आत्मा हौं । हे रामजी ! तेरा वास्तव स्वरूप है, सोई होडु, तिसते इतर अनात्मविषे अहंग्रीतिका त्याग कर, तू देहते रहित निर्विकार है, तेरेविधे जन्ममृत्युआदि विकार कोऊ नहीं, अरु शतरूप ज्योंका त्यों स्थित है, तु कदाचित् स्वरूपते अपर नहीं हुआ, तिसी स्वरूपविषे स्थित होड्डु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सारप्रबोधवर्णनं नाम शताधिकनमः सर्गः ॥ १०९ ॥