पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५४

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अलैकत्वप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १२३५) शताधिकदशमः सर्गः ११०, ब्रह्मैकत्वप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । आत्मा चिन्मात्रते सार अपर कछ नहीं तिसविषे स्थित होडु, जो ताप मिटि जावै॥ हैरामजी । सर्व आत्मा ही स्थित है, जैसे बीजही फल फूल होकर स्थित होता है, तैसे सर्व आत्माही स्थित है, तो निषेध अरु त्याग किसका करिये ॥ वाल्मीकिरुवाच ॥ हे शिष्य ! ऐसे वसिष्ठजीके वचन श्रवण कारकै रामजी प्रसन्न हुआ, जैसे कमल सूर्यको देखिकार खिलि आता है, तैसे रामजीकी बुद्धि वसिष्ठजीके वचनोंरूपी सूर्यकार खिलि आई, अरु बोलत भया॥ राम उवाच ।। हे भगवन् सर्वधर्मज्ञ ! तुम्हारी कृपाते अब मैं जागा हौं अरु बड़ा आश्चर्य है, जो आत्मा सर्वदा अनुभवरूप है, अरु अपना आप है, तिसके प्रमादकर मैं एता काल दुःख पाया है, जो अहंताममतारूपी बड़ा बोझा शिरके ऊपर था, तिसकार मैं दुःखी था, जैसे किसीके शिरके ऊपर पत्थरकी शिला होवै, अरु ज्येष्ठआषाढका सूर्य तपै अरु पैदल चलें, तब दुःख पावै है, अरु जो उसके शिरते को उतार लेवें। बलसों छायाविषे बैठावै तौ बड़े सुखको प्राप्त होता है, तैसे अज्ञानरूपी पैदे अरु धूप तिसविषे अहंताममतारूपी शिलाकार दुःखी था, तुम वचनरूपी बलकार उतारि लिया है, अरु आत्मारूपी वृक्षकी छायाविषे विश्राम कराया है । हे भगवन् ! अब मेरे ताई शांतपद प्राप्त हुआ है, अरु तीनों ताप मिटि गए हैं, अब जो सुमेरु पर्वतका भार आनि प्राप्त होवै तौ भी मेरे तांई कष्ट कोऊ नहीं, अब मेरे सर्व संशय निवृत्त हुए हैं, जैसे शरत्कालका आकाश निर्मल स्वच्छरूप होता है, तैसे रागद्वेषरूपी द्वंद्व मेरा नष्ट भया हैं, अब मैं अपने स्वभावविषे स्थित हुआ हौं, परंतु एक प्रश्न है, उत्तर कृपा कर कहौ, जो महापुरुष वारंवार प्रश्न करणेविषे खेद नहीं मानते ॥ हे भगवन् ! तुम कहते हौ सर्व ब्रह्मही है, तौ शास्त्रका विधि निषेध उपदेश किसको है, जो यह कर्म कर्तव्य है, यह