पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५७

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(३२३८), योगवासिष्ठ । । अरु जैसे विश्वकी उत्पत्ति भई है सो सुन, शुद्ध चेतनमात्र स्वरूपविषे चिदावलीरूप अहं तरंग कुरा है, अरु तिस चिदावलीरूपी समुद्रविषे जीवरूपी तरंग उपजता है, अरु जीवरूपी समुद्रविषे अहंकाररूपी तरंग भासा है, अरु अहंकाररूपी समुद्रविषे बुद्धिरूपी तरंग उपजा है, तिस बुद्धिरूपी समुद्रविषे चित्तरूपी तरंग भासा अरु चित्तरूपी समुद्रविषे संकल्परूपी तरंग उपजा है, तिस संकल्परूपी समुद्भविषे जगरूपी तरंग उपजा है, अरु जगतरूपी समुद्रविष देहरूपी तरंगभासा हैं, तिसके संयोगते दृश्यका ज्ञान हुआ है, कि यह पदार्थ हैं, यह नहीं, यह ऐसे हैं, तिसविषे देश काल दिशा सर्व हुए हैं ॥ हे रामजी । संकल्पकार हो गए हैं, सो आत्माते इतर कछु नहीं, केवल शतरूप एकरस आत्मा है, तिसविर्षे नानाप्रकारके आचार रचे हैं। आत्माते इतर कछु नहीं, जैसे स्वभकी सृष्टि..नानाप्रकार हो भासतीहै, सो अपनाही अनुभव होता है, तैसे यह जगत् भी जान, आत्मा सर्वदा एकरस अद्वैत है, शुद्ध है, प्रमनिर्वाण है, सर्वदा अपने आपविषे स्थित है, ऊरणे कारकै नानाप्रकारकी कलना उदय भई है । हे रामजी! शुद्ध आत्माविषे जो चिदेव हुई है “चिदेव पंचभूतानि, चिदेव भुवनत्रयं”, सो चिदेव संज्ञा भी संकल्पविषे हुई है, आत्माविषे चिदेव संज्ञा भी नहीं, आत्मा निर्वाच्य पद है, तिसविषे वाणीकी गम नहीं, शुद्ध शांतरूप हैं, तिसविषे चिदेव जो फुरी है, तिस फुरणेविषे संसार हुएकी नाईं स्थित है, जैसे एकही बीजने वृक्ष फूल फल आदिक संज्ञा पाई हैं, सो बीजते इतर कछु नहीं, अरु आत्मा बीजकी नाँई भी परिणम्य नहीं, संकल्पतेही नाना संज्ञा कल्पी हैं, अरु जगत् स्थित हुआ है, तौ भी आत्माते इतर कछु नहीं, जैसे वायु चलता है तो भी वायु हैं, ठहरता है तो भी वायु है, तैसे आत्माविषे नानात्व कछु नहीं, केवल शुद्ध अद्वैत आत्मा है, आत्मारूपी समुद्रविषे नानाप्रकार विश्वरूपी तरंग स्थित हैं । हे रामजी ! आकार भी आत्माते इतर कछु नहीं, जो आत्माते इतर भासै सो मिथ्या जान, मृगतृष्णाके जलकी नाई जानकार तिसकी भावना त्याग,अरु स्वरूपकी भावना करु॥इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मैकत्वप्रतिपादनवर्णनं नाम शताधुिकदशमः सर्गः११०