पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५८

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निर्वाणवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२३९) शताधिकैकादशः सर्गः १११. निर्वाणवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! मेरे वचनोंको धारि, अरु हृदयविषे आस्तिक भावना करु, कि यह सत्य कहते हैं, अरु सर्वत्याग करु, जब सर्व त्याग करैगा, तब चित्त क्षीण हो जावैगा, जब क्षीणचित्त हुआ, तब शांति होवैगी । हे रामजी ! काष्ठमौन होकर अंतरते सर्व त्याग करु अरु बाह्य कमको करु, अभिमानते रहित होकर अंतर्मुखी हो, अंतर्मुखी कहिये आत्माविषे स्थित होना, जब आत्माविषे स्थित होवैगा, तब विद्यमान दृश्य भी तेरे तई न भासैगा. काहेते कि, सर्व आत्माही भासैगा, अरु जो तेरे पास भेरीके शब्द होवेंगे तो भी न भासैगा, अरु जो सुगंधि लेवैगा, तौ भी नहीं लीनी, जो कछु क्रिया करेगा, सो तेरे तांई स्पर्श न करेगी, आकाशकी नई सर्वते असंग रहैगा ॥ हे रामजी ! कछु देखै सो स्वरूपते इतर न देखे, अरु जो बोलें। सो भी आत्माते इतर न फुरै; अंध अरु गूगेकी नई अरु पत्थरकी शिलावत् मौन हो रहु, संकल्पते रहित अरु चेष्टा तेरी यंत्रकी पुतलीवत् खड़ी होवैगी, जैसे यंत्रकी पुतली तागेकी सत्ताकार चेष्टा करतीहै, तैसे नीति शक्तिकरि प्राणोंकी चेष्टा तेरी होवैगी, स्वाभाविक जो कछु : किया है, सो अभिमानते रहित होकार स्थित होना, अरु जो अभिमानसहित चेष्टा करता है, सो मूर्ख असम्यदर्शी हैं, अरु जो सम्यक्दृर्शी है, तिसको अनात्मविषे अभिमान नहीं होता ॥ हे रामजी। जिसको अनात्म अभिमान नहीं अरु चित्त जिसका लेपायमान नहीं होता, सो सारी सृष्टिका संहार करै, अथवा उत्पत्ति करै, तो उसको बंधन कछु नहीं होता, जो सर्वं कर्म अभिलाषते रहित होकर करताहै ।। हे रामजी ! समाधिविषे स्थित होडु, अरु जाग्रत्की नाँई सर्व कर्म करु, तेरेविषे दृष्टि भी आवै तौ भी तिनते सुषुप्तिकी नई ऊरणा कोऊन फुरै, अपने स्वरूपकी समाधि रहै, अरु समाधि भी तब कहिये जो कोऊ दूसरा होवै, जो इसविषे स्थित होइये, इसका त्याग करिये।। हे रामजी ।