पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५९

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( १२४०) योगवासिष्ठ । जहां एक शब्द अरु दो शब्द कहना भी नहीं, अद्वितीयात्मा परमार्थ सत्ता है, तिसविषे चित्तने नामाप्रकारके विकार कल्पे हैं, ज्ञानीको एकरस भासता है, अरु ज्ञानीको ज्ञानी जानता है, जैसे सर्पके खोजको सर्प जानता है, तैसे ज्ञानीको एकरस आत्माही भासता है, सो ज्ञानीही जानता है, अरु मूर्खको संकल्पकार नानाप्रकार जगत् भासता है,ताते संकल्पको त्यागिकार अपने प्रकृत आचारविषे विचरु; जैसे उन्मत्तकी चेष्टा स्वाभाविक होती है, जैसे बालककी चेष्टा स्वाभाविक होती है, अंग हलते, तैसे अभिमानते रहित होकार चेष्टा करु, जैसे पत्थरकी : शिला जड होती है, तैसे दृश्यकी भावनाते रहित हो, जो ऊरै कछु नहीं, जडकी नई जब ऐसा होवैगा, तब शांतपदको प्राप्त होवैगा ॥ हे रामजी । चित्तके संबंधकार क्षोभ उत्पन्न होता है, जैसे वसंतऋतुविषे फूल उत्पन्न होते हैं, तैसेचित्तरूपी वसंतऋतुविषे दुःखरूपी फूल उत्पन्न होते हैं, जब तू चित्तको शांत करैगा, तब परमपदको प्राप्त होवैगा, सो पद कैसा है, सूक्ष्मते सूक्ष्म है, अरु स्थूलते स्थूल है, ताते तू असंग हो, जब तू स्थूलते स्थूल होवैगा, तब भी असंग रहैगा, ऐसे पदको पायकार काष्ठ पत्थरकी नाई मौन होहु ॥ हे रामजी ! दृश्य पदार्थको त्यागिकरि जो द्रष्टा है जाननेवाला, तिसविषे स्थित होहु ।। हे रामजी! इंद्रियां अपने अपने विषयको ग्रहण करती हैं, तिनकी ओर तू भावना मत करु कि,यह सुन्दररूप हैं, इनकी प्राप्ति होवै, भलेविष प्राप्त होनेकी भावना तु मत करें, इनके जाननेवाला जो आत्मा है, तिसविषे स्थित होहु, जो पुरुष द्रष्टाविषे स्थित होता है, सो गोपदकी नई संसारसमुद्रुको लंघि जाता हैं. हे रामजी ! जो पदार्थ दृष्ट, आते हैं, तिनविषे अपनी अपनी सृष्टि है, कैसी सृष्टि है, जो संकल्पमात्रही है, अपने अपने संकल्पविषे स्थित है, अरु सर्व संकल्प आत्माके आश्रय हैं, जैसे सब पदार्थ आकाशविषे स्थित हैं, तैसे सर्व संकल्पकी सृष्टि आत्माके आश्रय है, अरु एकके संकल्पको दूसरा नहीं जानता, सृष्टि अपनी अपनी है, जैसे समुद्रविषे जेते बुबुदे , तिनको जलकरि एकताहै, अरु आकारकारे एकता नहीं, तैसे स्वरूपकार सबकी एकता है, अरु