पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३६१

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( १२४२) योगवासिष्ठपरम अमृतकर शोभायमान होहुगे, जैसे पूर्णमासीका चंद्रमा अमृतकार शोभता है, तैसे ब्रह्म लक्ष्मीकार शोभौगे, अरु परमनिर्वाण पदको प्राप्त होगे ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे निर्वाणवर्णनं नाम शताधिकैकादशः सर्गः ॥१११ ॥ शताधिकादशः सर्गः ११२. भूमिकालक्षणविचारवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! सप्तभूमिका ज्ञानकी हैं, इनकार ज्ञान उत्पन्न होता है। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जिस भूमिकाविषे जिज्ञासी प्राप्त होता है, तिसका लक्षण क्या है, यह सप्त भूमिका क्या हैं, अरु प्राप्त कैसे होती हैं, सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह सप्त भूमिका तुझको कहता हौं, जिसप्रकार प्राप्त होती हैं, अरु जिस प्रकार भूमिकाते ज्ञान प्राप्त होता है, सो श्रवण करु ॥ हे रामजी !जब बालक माताके गर्भविषे होता है, अरु बाह्य निकसता है, तब इसको दृढ सुषुप्ति जड अवस्था होती है, जैसे ज्ञानीकी होती है, परंतु बालकविषे संस्कार रहता हैं, तिसकार संस्कारकी सत्यता आगे होनी हैं, जैसे बीजविषे अंकुर होता है, तिसते आगे वृक्ष होना है, तैसे बालककी भावी होनी है, अरु ज्ञानीकी भावीनहीं होनी जैसे दग्धबीजविषे अंकुर नहीं होता, तैसे ज्ञानीकी भावी नहीं होनी, संसारते सुषुप्तहे,अरु स्वरूपविषे नहीं इसीते भावी तिसविषे नहीं होनी, जब बालकको बाह्य निकसेते कोऊ काल व्यतीत होता है, तब दृढ जडता निवृत्त होती है, अरु सुषुप्ति रहती हैं, केते कालते उपरांत सुषुप्ति भी लय होती है, अरु चेतनता होती है, तब जानता है कि, यह मैं हौं, यह मेरे पिता माता हैं, त३ कुलवाले तिसको शिखावते हैं कि, यह मीठा है, यह कडुवा है, यह तेरी माता हैं, यह पिता है, यह तेरा कुल है, इमकार पाप होता है, इसकारि पुण्य होता है, इसकार स्वर्ग पाता है, इसकरि नरक पाता है, इसप्रकार यज्ञ होता है, इसप्रकार तप होता है।