पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३६३

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( १२४४ ) योगवासिष्ठ । मर्यादासाथ बोलता है, अरु संतजनको संग करता है, सच्छास्त्र ब्रह्मविछाको वारंवार विचारता है, इसप्रकार उसकी बुद्धि बढ़ती जाती है, अरु संतजनका संग करता है, जैसे शुक्लपक्षके चंद्रमाकी कला दिन दिनप्रति बढ़ती है तैसे इसकी बुद्धि बढती है अरु विषयते उपरत होती है, तीर्थ ठाकुरद्वारे शुभ स्थान पूजता है, अरु देह इंद्रियोंकार संतकी टहल करता है, अरु सर्वसाथ मित्रभाव,या, सत्य, कोमलताकार विच. रता है, ऐसा वचन बोलता है, जिसकार सब कोऊ प्रसन्न होवें, अरु यथाशास्त्र होवें, अरु इतर किसीको नहीं कहना, अरु अज्ञानीका संग त्यागना अरु स्वर्ग आदिक सुखकी भावना न करनी, केवल आत्मपरायण होना, संत अरु शास्त्रोंकी दृढ भावना करनी, तिनके अर्थीविषे सुरति लगावनी अपर किसी ओर चित्त न लगाना, जैसे कर्यदरिद्री सर्वदा धनकी चितवना करता है, तैसे वह सदा आत्माको चितवना करता है, जो पुरुष एते गुण संयुक्त हैं; तिसको प्रथम भूमिका प्राप्त भई है, अरु पापरूपी सर्पको मोर समान सिरनीकारिकै नाश करता है। संतजन सच्छास्त्र अरु धर्मरूपी मेघको गर्दन ऊंची कार देखता है, अरु प्रसन्न होता है, इसका नाम शुभेच्छा है, तिसको बहुरि दुसरी भूमिका आय प्राप्त होती हैं, जैसे शुक्लपक्षके चंद्रमाकी कला बढ़ती जाती है, तैसे उसकी बुद्धि बढ़ती जाती हैं, तिसके यह लक्षण हैं, जो सच्छास्त्र ब्रह्मविद्याको विचारना, अरु दृढ भवाना लगावनी, तिस विचारका कवच गलेविषे पाता हैं, तिसकार शस्त्रोंका घाउ कोऊ नहीं लगता, जो इंद्रियारूपी चोर हैं, इच्छारूपी तिनके हाथविषे बरछी है, सो विचाररूपी कवच पहिरनेवालेको नहीं लगती ॥ हे रामजी ! इंद्वियांरूपी सर्प हैं, तृष्णा तिनविषे विष है, तिसकार मूखको मारती हैं, अरु विचारवान् जो पुरुष है, सो इंद्रियोंके विषयको नाशकार छोड़ताहै, अरु सर्व ओरते उदासीन रहता है, दुर्जनकी संगतिका बल कारकै त्याग करता है, जैसे गधा तृणको त्यागता है, तैसे मूर्खकी संगति देहते लेकर त्यागता है, अरु सर्व इच्छाका त्याग किया है, परंतु एक इच्छा तिसविषे भी रहती है, सो दृया सर्वपर करता है, अरु संतोषवान्